गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में पुत्रदर्शन पर्व के अंतर्गत अध्याय 29 में गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध करने का वर्णन हुआ है।[1]

गांधारी और कुंती द्वारा व्यास से अनुरोध

‘महाप्राज्ञ नरेश! बोलो, मैं तुम्हें कौन-सा अभीष्ट मनोरथ प्रदान करूँ? आज मैं तुम्हें मनोवान्छित वर देने को तैयार हूँ। तुम मेरी तपस्या का फल देखो।’ अमित बुद्धिमान महर्षि व्यास के ऐसा कहने पर महाराज धृतराष्ट्र ने दो घड़ी तक विचार करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘भगवान! आज मैं धन्य हूँ, आप लोगों की कृपा का पात्र हूँ तथा मेरा यह जीवन भी सफल है; क्योंकि आज यहाँ आप-जैसे साधु-महात्माओं का समागम मुझे प्राप्त हुआ है। ‘तपोधनो! आप ब्रह्मतुल्य महात्माओं का जो संग मुझे प्राप्त हुआ उससे मैं समझता हूँ कि यहाँ अपने लिये अभीष्ट गति मुझे प्राप्त हो गयी। ‘इस में संदेह नहीं कि मैं आप लोगों के दर्शन मात्र से पवित्र हो गया। निष्पाप महर्षियो! अब मुझे परलोक से कोई भय नहीं है। ‘परन्तु अत्यन्त खोटी बुद्धिवाले उस मन्दमति दुर्योधन के अन्यायों से जो मेरे सारे पुत्र मारे गये हैं, उन्हें पुत्रों में आसक्त रहने वाला मैं सदा याद करता हूँ; इसलिये मेरे मन से बड़ा दुःख होता है।

पापपूर्ण विचार रखने वाले उस दुर्योधन ने निरपराध पाण्डवों को सताया तथा घोड़ों, मनुष्यों और हाथियों सहित इस सारी पृथ्वी के वीरों का विनाश करा डाला। अनेक देशों के स्वामी महामनस्वी नरेश मेरे पुत्र की सहायता के लिये आकर सब-के-सब मृत्यु के अधीन हो गये। वे सब शुरवीर भूपाल अपने पिताओं, पत्नियों, प्राणों और मन को प्रिय लगने वाले भोगों का परित्याग करके यमलोक को चले गये। ‘ब्राह्मन! जो मित्र के लिये युद्ध में मारे गये उन राजाओं की क्या गति हुई होगी? तथा जो रणभूमि में वीर गति को प्राप्त हुए हैं, उन मेरे पुत्रों और पौत्रों को किस गति की प्राप्ति हुई होगी? ‘महाबली शान्तनुनन्दन भीष्म तथा वृद्ध ब्राह्मणप्रवर द्रोणाचार्य का वध कराकर मेरे मन को बारंबार दुःसह संताप प्राप्त होता है। ‘अपवित्र बुद्धि वाले मेरे पापी एवं मूर्ख पुत्र ने समस्त भूमण्डल के राज्य का लोभ करके अपने दीप्तिमान कुल का विनाश कर डाला। ‘ये सारी बातें याद करके मैं दिन-रात जलता रहता हूँ। दुःख और शोक से पीड़ित होने के कारण मुझे शान्ति नहीं मिलती है। पिता जी! इन्हीं चिन्ताओं में पड़े-पड़े मुझे कभी शान्ति नहीं प्राप्त होती।'

वैशम्पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! राजर्षि धृतराष्ट्र का वह भाँति-भाँति से विलाप सुनकर गान्धारी का शोक फिर से नया-सा हो गया। कुन्ती, दौपदी, सुभद्रा तथा कुरुराज की उन सुन्दरी बहुओं का शोक भी फिर से उमड़ आया। आँखों परपट्टी बाँधे गान्धारी देवी श्वशुर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं और पुत्रशोक से संतप्त होकर इस प्रकार बोलीं। मुनिवर! प्रभो! इन महाराज को अपने मरे हुए पुत्रों के शोक करते आज सोलह वर्ष बीत गये; किंतु अब तक इन्हें शान्ति नहीं मिली। ‘महामुने! ये भूमिपाल धृतराष्ट्र पुत्र शोक से संतप्त हो सदा लम्बी साँस खींचते आौर आहें भरते रहते हैं। इन्हें रात भर कभी नींद नहीं आती। ‘आप अपने तपोबल सेइन सब लोकों की दूसरी सृष्टि करने में समर्थ हैं, फिर लोकान्तर में गये हुए पुत्रों को एक बार राजा से मिला देना आप के लिये कौन बड़ी बात है?[1] ‘यह द्रुपदकुमारी कृष्णा मुझे अपनी समस्त पुत्र-वधुओं में सबसे अधिक प्रिय है। इस बेचारी के भाई-बन्धु और पुत्र सभी मारे गये हैं; जिस से यह अत्यन्त शोकमग्न रहा करती है। ‘सदा मंगलमय वचन बोलने वाली श्रीकृष्ण की बहन भाविनी सुर्वदा अपने पुत्र अभिमन्यु के वध से संतप्त हो निरन्तर शोक में ही डूबी रहती है। ‘ये भूरिश्रवाकी परम प्यारी पत्नी बैठी है, जो पति की मृत्यु के शोक से व्याकुल हो अत्यन्त दुःख में मग्न रहती है। इस के बुद्धिमान श्वशुर कुरुश्रेष्ठ बाह्लिक भी मारे गये हैं। भूरिश्रवा के पिता सोमदत्त भी अपने पिता के साथ ही उस महासमर में वीर गति को प्राप्त हुए थे। ‘आप के पुत्र, संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले, परम बुद्धिमान जो ये श्रीमान महाराज हैं, इन के जो सौ पुत्र समरांगण में मारे गये थे, उनकी ये सौ स्त्रियाँ बैठी हैं। ये मेरी बहुएँ दुःख और शोक के आघात सहन करती हुई मेरे और महाराज भी शोक को बारंबार बढ़ा रही हैं। महामुने! ये सब-की-सब शोक के महान आवेग से रोती हुई मुझे ही घेरकर बैठी रहती हैं। ‘प्रभो! जो मेरे महामनस्वी श्वशुर शूरवीर महारथी सोमदत्त आदि मारे गये हैं, उन्हें कौन-सी गति प्राप्त हुई है? ‘भगवान! आप के प्रसाद से ये महाराज, मैं और आपकी बहू कुन्ती-ये सब-के-सब जैसे भी शोक रहित हो जायँ, ऐसी कृपा कीजिये। जब गन्धारी ने इस प्रकार कहा, तब व्रत से दुर्बल मुखवाली कुन्ती ने गुप्त रूप से उत्पन्न हुए अपने सूर्यतुल्य तेजस्वी पुत्र कर्ण का स्मरण किया। दूर तक की देखने -सुनने और समझने वाले वरदायक ऋषि व्यास ने अर्जुन की माता कुन्ती देवी को दुःख में डूबी हुई देखा। तब भगवान व्यास ने उनसे कहा-‘महाभागे! तुम्हें किसी कार्य के लिये यदि कुछ कहने की इच्छा हो, तुम्हारे मन में यदि कोई बात उठी हो तो उसे कहो। तब कुन्ती ने मस्तक झुकाकर श्वशुर को प्रणाम किया और लज्जित हो प्राचीन गुप्त रहस्य को प्रकट करते हुए कहा।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 21-40
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 41-53

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