व्यास का धृतराष्ट्र से विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 28वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने महर्षि व्यास द्वारा विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

व्यास का विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन करना

व्यास जी कहते हैं- राजेन्द्र! महात्मा विदुर के, जो साक्षात महामना धर्म के स्वरूप थे, इस विधि से परलोकगमन का समाचार तो तुम्हें ज्ञात हुआ ही होगा। माण्डव्य मुनि के शाप से धर्म ही विदुररूप में अवतीर्ण हुए थे। वे परम बुद्धिमान, महान योगी, महात्‍मा और महामनस्‍वी थे। देवताओं में बृहस्पति और असुरों में शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान नहीं हैं, जैसे पुरुष प्रवर विदुर थे। माण्डव्य ऋषि ने चिरकाल संचित किये हुए तपोबल का क्षय करके सनातन धर्मदेव को (शाप देकर) पराभूत किया था। मैंने पूर्वकाल में ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार अपने तपोबल से विचित्रवीर्य के क्षेत्र (भार्या) में उस परम बुद्धिमान विदुर को उत्पन्न किया था। महाराज! तुम्हारे भाई विदुर देवताओं के भी देवता सनातन धर्म थे। मन के द्वारा धर्म का धारण और ध्यान किया जाता है, इसलिये विद्वान पुरुष उन्हें धर्म के नाम से जानते हैं। जो सत्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, अहिंसा औैर दान के रूप में सेवित होने पर जगत के अभ्युदय का साधक होता है, वह सनातन धर्म विदुर से भिन्न नहीं है। जिस अमित बुद्धिमान और प्राज्ञ देवता ने योगबल से कुरुराज युधिष्ठिर को जन्म दिया था, वह धर्म विदुर का ही स्वरूप है।[1]

जैसे अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश की सत्ता इहलोक और परलोक में भी है, उसी प्रकार धर्म भी उभय लोक में व्याप्त है। राजेन्द्र! धर्म की सर्वत्र गति है तथा वह सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त करके स्थित है। जिनके समस्त पाप धुल गये हैं, वे सिद्ध पुरुष तथा देवताओं के देवता ही धर्म का साक्षात्कार करते हैं। जिन्हें धर्म कहते हैं वे ही विदुर थे, और जो विदुर थे, वे ही ये पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर हैं, जो इस समय तुम्‍हारे सामने दास की भाँति खडे़ हैं। महान योगबल से सम्‍पन्‍न और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तुम्हारे भाई महात्मा विदुर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को सामने देखकर इन्हीं के शरीर में प्रविष्ट हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ! अब तुम्हें भी मैं शीघ्र ही कल्याण का भागी बनाऊँगा। बेटा! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि इस समय मैं तुम्हारे संशयों का निवारण करने के लिये आया हूँ। पूर्वकाल के किन्हीं महर्षियों ने संसार में अब तक जो चमत्कार पूर्ण कार्य नहीं किया था, वह भी आज मैं कर दिखाऊँगा। आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का आश्चर्यजनक फल दिखलाता हूँ। निष्पाप महीपाल! बताओ, तुम मुझसे कौन सी अभीष्ट वस्तु पाना चाहते हो? किसको देखने, सुनने अथवा स्पर्श करने की तुम्हारी इच्छा है? मैं उसे पूर्ण करूँगा।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-25

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