पांडवों के अनुरोध पर भी कुंती का वन जाने का निश्चय

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 16वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र का पुरवासियों को लौटाने और पांडवों के अनुरोध करने पर भी कुंती का वन में जाने से न रुकने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र का पुरवासियों को लौटाना

वैशम्पायन जी कहते हैं - पृथ्वीनाथ! तदनन्तर महलों और अट्टालिकाओं में तथा पृथ्वी पर भी रोते हुए नर-नारियों का महान कोलाहल छा गया। सारी सड़क पुरुषों और स्त्रियों की भीड़ से भरी हुई थी। उस पर चलते हुए बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ पाते थे। उनके दोनों हाथ जुडे़ हुए थे और शरीर काँप रहा था। राजा धृतराष्ट्र वर्धमान नामक द्वार से होते हुए हस्तिनापुर से बाहर निकले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने बारंबार आग्रह करके अपने साथ आये हुए जनसमूह को विदा किया। विदुर और गवल्गणकुमार महामात्र सूत संजय ने राजा के साथ ही वन में जाने का निश्चय कर लिया था। महाराज धृतराष्ट्र ने कृपाचार्य और महारथी युयुत्सु को युधिष्ठिर के हाथों सौंपकर लौटाया। पुरवासियों के लौट जाने पर अन्तःपुर की रानियों सहित राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर लौट जाने का विचार किया।[1]

कुंती को वन जाने से रोकने हेतु पांडवों का अनुरोध

उस समय उन्होंने वन की ओर जाती हुई अपनी माता कुन्ती से कहा- ‘रानी माँ! आप अपनी पुत्र वधुओं के साथ लौटिये, नगर को जाइये। मैं राजा के पीछे-पीछे जाऊँगा; क्योंकि ये धर्मात्मा नरेश तपस्या के लिये निश्चय करके वन में जा रहे हैं, अतः इन्हें जाने दीजिये। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुन्ती के नेत्रों में आँसू भर आया तो भी वे गान्धारी का हाथ पकड़े चलती ही गयीं। जाते जाते ही कुन्ती ने कहा- महाराज! तुम सहदेव पर कभी अप्रसन्न न होना। राजन! यह सदा मेरे और तुम्हारे प्रति भक्ति रखता आया है। संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले अपने भाई कर्ण को भी सदा याद रखना, क्योंकि मेरी ही दुर्बुद्धि के कारण वह वीर युद्ध में मारा गया। बेटा! मुझ अभागिनी का हृदय निश्चय ही लोहे का बना हुआ है; तभी तो आज सूर्यनन्दन कर्ण को न देखकर भी इसके सैकड़ों टुकडे़ नहीं हो जाते। शत्रुदमन! ऐसी दशा में मैं क्या कर सकती हूँ। यह मेरा ही महान दोष है कि मैंने सूर्यपुत्र कर्ण का तुम लोगों को परिचय नहीं दिया। महाबाहो! शत्रुमर्दन! तुम अपने भाईयों के साथ सदा ही सूर्यपुत्र कर्ण के लिये भी उत्तम दान देते रहना। शत्रुसूदन! मेरी बहू द्रौपदी का भी सदा प्रिय करते रहना। कुरुश्रेष्ठ! तुम भीमसेन, अर्जुन और नकुल को भी सदा संतुष्ट रखना। आज से कुरुकुल का भार तुम्हारे ही ऊपर है। अब मैं वन में गान्धारी के साथ शरीर पर मैल एवं कीचड़ धारण किये तपस्विनी बनकर रहूँगी और अपने इन सास-ससुर के चरणों की सेवा में लगी रहूँगी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! माता के ऐसा कहने पर अपने मन को वश में रखने वाले धर्मात्मा एवं बुद्धिमान युधिष्ठिर भाईयों सहित बहुत दुःखी हुए। वे अपने मुँह में कुछ न बोले। दो घड़ी तक कुछ सोच विचार कर चिन्ता और शोक में डूबे हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने माता से दीन होकर कहा- ‘माता जी! आपने यह क्या निश्चय कर लिया? आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिये। मैं आपको वन में जाने की अनुमति नहीं दे सकता। आप मुझ पर कृपा कीजिये।[1]

प्रियदर्शने! पहले जब हम लोग नगर से बाहर जाने को उद्यत थे, आपने विदुला के वचनों द्वारा हमें क्षत्रिय धर्म के पालन के लिये उत्साह दिलाया था। अतः आज हमें त्यागकर जाना आपके लिये उचित नहीं है। पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्ण के मुख से आपका विचार सुनकर ही मैंने बहुत से राजाओं का संहार करके इस राज्य को प्राप्त किया है। कहाँ आपकी वह बुद्धि और कहाँ आपका यह विचार? मैंने आपका जो विचार सुना है, उसके अनुसार हमें क्षत्रिय धर्म में स्थित रहने का उपदेश देकर आप स्वयं उससे गिरना चाहती हैं। यशस्विनी मा! भला आप हमको, अपनी इन बहुओं को और इस राज्य को छोड़कर अब उन दुर्गम वनों में कैसे रह सकेंगी; अतः हम लोगों पर कृपा करके यहीं रहिये’। अपने पुत्र के ये अश्रु गद्गद वचन सुनकर कुन्ती के नेत्रों में आँसू उमड़ आये तो भी वे रुक न सकीं। आगे बढ़ती ही गयीं। तब भीमसेन ने उनसे कहा- ‘माता जी! जब पुत्रों के जीते हुए इस राज्य के भोगने का अवसर आया और राजधर्म के पालन की सुविधा प्राप्त हुई, तब आपको ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी? यदि ऐसा ही करना था तो आपने इस भूमण्डल का विनाश क्यों करवाया? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वन में जाना चाहती हैं? जब आपको वन में ही जाना था, तब आप हमको और दुःख शोक में डूबे हुए उन माद्रीकुमारों को बाल्यावास्था में वन से नगर में क्यों ले आयीं? मेरी यशस्विनी मा! आप प्रसन्न हों। आप हमें छोड़कर वन में न जायँ। बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिर की उस राजलक्ष्मी का उपभोग करें। शुद्ध हृदय वाली कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकार से विलाप करते हुए अपने पुत्रों का अनुरोध उन्होंने नहीं माना। सास को इस प्रकार वनवास के लिये जाती देख द्रौपदी के मुख पर भी विषाद छा गया। वह सुभद्रा के साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्ती के पीछे-पीछे जाने लगी। कुन्ती की बुद्धि विशाल थी। वे वनवास का पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रों की ओर बार-बार देखती हुई, वे आगे बढ़ती ही चली गयीं। पाण्डव भी अपने सेवकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे। तब उन्होंने आँसू पोंछकर अपने पुत्रों से इस प्रकार कहा।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 20-32

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