भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी कुछ गैर हिन्दू भक्त जन 9

भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी कुछ गैर हिन्दू भक्त जन


गोलोकवासी भक्त श्री रामशरणदासजी ‘पिलखुवा’

(5)
महान कृष्ण भक्त - मोहम्मद याकूब खाँ ‘सनम’

रहीम, रसखान और ताज बेगम की परम्परा में इस शताब्दी में हुए हैं मोहम्मद याकूब खाँ उर्फ ‘सनम साहब’। अजमेर वासी सनम साहब ने सन 1920 ई. से लेकर सन 1944 ई. तक देश भर में कृष्ण-भक्ति का प्रचार-प्रसार किया तथा अन्त में सन 1945 ई. में एक दिन अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण की लीला भूमि व्रज की पावन मिट्टी में अपना शरीर समर्पण कर दिया।

सनम साहब ने संस्कृत, हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित कृष्ण भक्ति-साहित्य का गहन अध्ययन किया। इन भाषाओं के अतिरिक्त वे फारसी के भी प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने कृष्ण भक्ति-सम्बन्धी लगभग 1200 पुस्तकें संग्रहीत कीं तथा अजमेर में ‘श्रीकृष्ण-लाइब्रेरी’ की स्थापना की। सनम साहब ने बहत समय तक व्रजभूमि में रहकर श्रीकृष्ण की उपासना की। अपनी मुक्ति के उद्देश्य से वे कृष्ण भक्त बने और तपस्वी गुरु के अन्वेषण में लग गये। अन्त में व्रजभूमि के संत श्रीसरसमाधुरी शरण जी को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। गुरुदेव सरसमाधुरी शरणजी की प्रेरणा से उन्होंने देश भर में कृष्ण भक्ति की धारा प्रवाहित करने का संकल्प लिया। वे प्रभावशाली वक्ता तथा भावुक भक्त थे, अतः कुछ ही समय में देशभर में उनके प्रवचनों की धूम मच गयी। सनमसाहब ने अपने एक प्रवचन मं कहा था - ‘श्रीकृष्ण के दो रूप हैं निराकार और साकार। निराकार जो गोलोक धाम में विराजमान है, उसका तीन रूप से अनुभव होता है - प्रेम, जीवन तथा आनन्द। प्रेम ही जीवन विधान है, जीवन ही सत्यता का आधार है और जीवन का मुख्य उद्देश्य आनन्द है। इस कारण ये तीनों ही श्रीकृष्ण की निराकार विभूतियाँ हैं, सृष्टि मात्र में व्याप्त हैं।’

‘यह तो केवल हिन्दुओं का कथन मात्र है कि श्रीकृष्ण मात्र हमारे हैं और उनके पुजारी हम ही हो सकते हैं। श्रीकृष्ण प्रेम का अधिकारी जीव मात्र है। स्वामी प्रेमानन्द जी ने अमेरिका जाकर श्रीकृष्ण पर व्याख्यान दिये, जिनका यह प्रभाव पड़ा कि चौदह हजार अमरीकी श्रीकृष्ण के अनुयायी हो गये और कैलिफोर्निया में कृष्ण-समाज तथा कृष्णालय स्थापित हो गये। वहाँ भारत के समान ही श्रीकृष्ण का पूजन, नाम-कीर्तन और गुणानुवाद होने लगा।’

सनम साहब को अपने गुरुदेव श्रीसरसमाधुरी शरण का एक पद बहुत पसन्द था - ‘लागै मोहे मीठो राधेश्याम’ यह पद उन्होंने मेरे पिताजी (भक्त रामशरणदास) - को लिखकर भेजा था। प्रवचन के आरम्भ में वे यह पद गाकर सुनाते थे।


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