भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी कुछ गैर हिन्दू भक्त जन 10

भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी कुछ गैर हिन्दू भक्त जन


गोलोकवासी भक्त श्री रामशरणदासजी ‘पिलखुवा’

(5)
महान कृष्ण भक्त - मोहम्मद याकूब खाँ ‘सनम’

एक सुशिक्षित मुसलमान को श्रीकृष्ण-भक्ति में तल्लीन देखकर अनेक धर्मान्ध लोगों में तहलका-सा मच गया था। कुछ ने अजमेर पहुँच कर उन्हें समझा-बुझा कर कृष्ण-भक्ति के पथ से हटाने का भारी प्रयास किया, किंतु उनके तर्कों के आगे वे वापस लौट जाते थे। इसके पश्चात उन्हें जान से मार डालने की भी धमकी दी गयी, काफिर तक कहा गया, किंतु सनम साहब ने स्पष्ट कह दिया कि मैं अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भक्ति के लिये पैदा हुआ हूँ, जिस दिन उन्हें मुझे अपने लोग में बुलाना होगा, मैं पहुँचा दिया जाऊँगा। अजमेर में उन पर आक्रमण का प्रयास भी किया गया। उन्होंने लिखा - ‘अभी मुझसे भगवान कृष्ण को और काम लेना है, इसलिये उन्होंने रक्षा की है।’

सनम साहब मेरे पिता भक्त श्रीरामशरण दास जी के अनन्य मित्र थे। सन 1935 ई. में वे पिलखुवा पधारे थे तथा उन्होंने हमारे निवास स्थान पर श्रीकृष्ण-भक्ति पर सुन्दर प्रवचन किया था।

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय तथा श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार (आदि सम्पादक ‘कल्याण’) उनकी श्रीकृष्ण भक्ति से बहुत प्रभावित थे।

सनम साहब संत उड़िया बाबा के प्रति भी भारी श्रद्धा रखते थे। वृन्दावन में बाबा के आश्रम में वे प्रतिदिन श्रीकृष्ण कीर्तन एवं रासलीला का रसा स्वादन करते थे। रासलीला के महत्त्व पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी। सनम साहब का कहना था कि रास लीला में तन्मय होकर कृष्ण एवं राधामय होने का अवसर अत्यन्त भाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। वृन्दावन में रासलीला का रसा स्वादन करते समय श्रीकृष्ण-प्रेम में लीन हो वे अश्रुधारा प्रवाहित करने लगते थे। संकीर्तन में वे भक्त जनों के साथ मिलकर नृत्य करने लगते थे। सुविख्यात अंग्रेज श्रीकृष्ण-भक्त रोनाल्ड निक्सन उर्फ श्रीकृष्णप्रेम-भिखारी से भी उनका निकट का सम्पर्क हो गया था। इन दोनों गैर-हिन्दू श्रीकृष्ण-भक्तों ने देश भर में भक्ति की भागरथी प्रवाहित करने में भारी योगदान किया था। महामना मदन मोहन मालवीय ने सन 1939 ई. में सनम साहब को काशी बुलाकर उनसे श्रीकृष्ण-भक्ति के विषय में विचार-विनिमय किया था।

अन्त में सनम साहब ने अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण की लीला भूमि ‘व्रज’ - सेवन का संकल्प लिया। वे हर समय यमुना-स्नान एवं श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन रहने लगे। रूखा-सूखा सात्त्विक भोजन प्रसाद रूप में ग्रहण कर लेना तथा बाकी समय संत-महात्माओं की सेवा एवं संकीर्तन में व्यतीत करना यही उनकी दिनचर्या थी। वे अपने को ‘ब्रजराजकिशोरदास’ नाम से सम्बोधित करने लगे थे। एक दिन उन्होंने वृन्दावन में ही रास लीला का रसा स्वादन करते समय अपने प्राण त्याग दिये।

प्रे. श्री शिवकुमारजी गोयल


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