श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. रुक्मी-वध
भोजकटपुर से रुक्मी की पौत्री रोचना[1] का विवाह अनिरुद्ध से करने के लिए ब्राह्मण नारियल लेकर आया। धर्म के जो मुख्य रूप हैं- सार्वभौम और सामयिक। सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया, अलोभ आदि धर्म सबके लिए, सब समय, सब देश में पालनीय हैं। ये सार्वभौम धर्म हैं। सामयिक धर्म देश, काल, व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। जो जिस वर्ण में उत्पन्न है, जिस आश्रम में है, उस वर्ण एवं आश्रम के लिए विहित धर्म उसका धर्म है। इस सामयिक धर्म के भी दो भेद होते हैं-
पृथक-पृथक देश में, पृथक-पृथक समय पर, पृथक-पृथक कुलों में आचार का पार्थक्य होता है और यह कुलाचार भी शास्त्रीय मर्यादा के समान ही पालन करने योग्य है। प्रायः गृह्यसूत्रों में इन कुलाचारों का पूरा विवरण रहता है। राजा तथा राजकुल के विशेष धर्म होते हैं। जैसे आपत्ति में, प्रवास में पड़े व्यक्ति के विशेष धर्म होते हैं। अनेक कुलों में- दक्षिण भारत के कुलों में अब भी मामा की कन्या से विवाह की प्रथा मान्य है। श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वयं अपनी कई बुआओं की पुत्रियों से विवाह किया था। लेकिन स्मृति शास्त्र के विपरित कुलाचार को धर्म मानना उचित नहीं होता। माता की तीसरी पीढ़ी में विवाह नहीं होना चाहिए, यह मत कई निबंधकारों ने याज्ञवल्क्य की टीका में प्रकट किया है। इसके अनुसार प्रद्युम्न का विवाह जब रुक्मी पुत्री से हो चुका तब उससे उत्पन्न अनिरुद्ध का विवाह रुक्मी की पौत्री से होना उचित नहीं था। श्रीकृष्णचन्द्र के ध्यान में था कि वह संबंध धर्मसम्मत नहीं है किन्तु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। रुक्मी पहले से ही बहुत रुष्ट था। प्रद्युम्न के विवाह से उसके साथ पुनः संपर्क बना था। वह अत्यन्त अभिमानी था। उसके इस संबंध प्रस्ताव को अस्वीकार करने का अर्थ था उसका अपमान करना और इस अपमान का अर्थ युद्ध भी हो सकता था। महारानी रुक्मिणी ने कह दिया- उन्होंने स्वयं भाई से उनकी पौत्री अनिरुद्ध के लिए माँगी है। ऐसी अवस्था में रुक्मी के द्वारा भेजे गये नारियल को अस्वीकार करने का अर्थ और भी अनर्थकारी था। महाभारत का युद्ध अभी-अभी ही समाप्त हुआ था। अब स्वजनों के संहार को आमन्त्रित करना उचित नहीं था जबकि यदुवंश को गान्धारी का शाप मिल चुका था। एक बात और, धर्मशास्त्र के अनुसार जो विवाह धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करके होते हैं, उनसे उत्पन्न संतान उस कुल की धर्म सन्तति नहीं होती। यदुवंश का भावी विनाश श्रीकृष्ण की दृष्टि से अज्ञात नहीं था। अतः यदुवंश का बीज तभी रह सकता था जब यदुवंश में उत्पन्न होकर भी कोई उसकी धर्म-सन्तति न हो। यही बात अनिरुद्ध के इस विवाह से उत्पन्न पुत्र वज्रनाभ के संबंध में हुई। वे एकमात्र बचे यादव महासंहार से। अनिरुद्ध के इस विवाह के अवसर पर भोजकटपुर श्रीबलराम, श्रीकृष्णचन्द्र, देवी रुक्मिणी, सपत्नीक प्रद्युम्न आदि बारात सजाकर पहुँचे। रुक्मी ने भी अपने मित्र नरेशों को बुला लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज