श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. उत्तङ्क पर अनुग्रह
महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर का शासन सम्हाल चुके थे और तीन अश्वमेध यज्ञ कर चुके थे। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से परित्राण देकर, जीवित करके पांडवों से विदा लेकर श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका लौट रहे थे। उनका गरुड़ध्वज रथ मरुधन्व देश में-से निकला तो महातापस महर्षि उत्तङ्क एक विशाल रेत के टीले में से निकल आये। उत्तङ्क मरुस्थल के इन रेत के टीलों में युगों तक समाधि में स्थित दबे रहते हैं। वे कहीं एक सहस्र वर्ष पूरे होने के पश्चात कभी जागते हैं और वह भी कुछ थोड़े घण्टों के लिए। फिर समाधि में बैठ गये तो फिर बीत गये सहस्र वर्ष। इस बार महर्षि उत्तङ्क शीघ्र उठ गये थे समाधि से। यही लगभग एक वर्ष पश्चात उठे थे क्योंकि श्रीकृष्ण-दर्शन का संकल्प करके ही समाधि में स्थित हुए थे। जब उत्तङ्क समाधि से उठे थे तब उन्होंने किसी मरुस्थल यात्री से सुन लिया था कि 'पांडवों ने वनवास तथा गुप्तवास पूरा कर लिया है। कौरव उन्हें उनका स्वत्व देना नहीं चाहते। यदि युद्ध हुआ तो देश में महाविनाश होगा। श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका से विराट नगर गये हैं और दोनों पक्षों में संधि कराने का प्रयत्न करने वाले हैं। जन-सम्पर्क से सर्वथा दूर मरुस्थल की रेत में युगों तक दबे रहकर तपस्या करने वाले को संसार का भला क्या परिचय। उत्तङ्क ने कौरव-पाण्डव भाई है और हस्तिनापुर के शासन को लेकर उनमें विवाद है, इसे समझ लिया। ऐसे तपस्वी ऋषि महर्षि सर्वज्ञ अवश्य होते हैं किन्तु नित्य सर्वज्ञ तो ईश्वर ही है। ऋषि-महर्षि चेष्टा, इच्छा करने पर जो चाहें जान सकते हैं किन्तु उत्तङ्क की कोई अभिरुचि राजकुलों का परिचय प्राप्त करने में नहीं थी। उन्होंने कौरव-पांडवों के सम्बन्ध में न अधिक पूछा, न स्वयं ध्यान करके कुछ जानना चाहा। 'देश में युद्ध में महाविनाश होगा।' यह बात एकान्त-सेवी तपस्वी उत्तङ्क को बहुत दुःखद लगी थी किन्तु 'श्रीकृष्ण परमपुरुष पुरुषोत्तम हैं, सर्व समर्थ हैं, वे सन्धि का प्रयत्न कर रहे हैं तो सन्धि क्यों नहीं होगी।' यह आश्वासन मन में स्वयं प्राप्त हो गया उस समय। 'परमपुरुष वैवस्वत मन्वन्तर की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी द्वापरान्त में अवतीर्ण होगें।' उत्तङ्क को सृष्टि कर्ता ने बहुत पहिले यह आश्वासन दिया था। उन पुरुषोत्तम के दर्शन की लालसा से ही वे पिछली बार समाधि से उठे थे, किन्तु तब श्रीकृष्णचन्द्र विराट नगर गये थे और सन्धि के प्रयत्न में लगे थे। उनके दर्शन का संकल्प लेकर उत्तङ्क फिर समाधि में बैठ गये थे। अब श्रीकृष्णचन्द्र का रथ समीप आया तो उन सत्य संकल्प की समाधि स्वयं टूटी। रथ रुक गया। अर्जुन के साथ श्रीकृष्णचन्द्र रथ से उतरे और रेत के टीले में-से निकलकर उस टीले पर ही खड़े अत्यन्त कृशकाय, धूसर वर्ण, दीर्घ जटा श्मश्रु, धूलि-धूसरित तेजोमूर्ति उस महातापस के समीप पहुँचकर भूमि में पड़कर प्रणिपात किया- 'मैं वार्ष्णेय वासुदेव कृष्ण श्रीचरणों में प्रणत हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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