श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. विदा
श्रीसंकर्षण और श्रीकृष्णचन्द्र दोनों को प्रभास के हुए संघर्ष में बलात तब सम्मिलित होना पड़ा था जब संघर्ष रोकने जाकर उनको प्रतिपक्षी समझकर उन पर ही आक्रमण कर दिया गया। उस समय तक सबके रथ, अस्त्र-शस्त्रादि समाप्त हो चुके थे। इन दोनों भाइयों के रथ दूर खड़े रहे। इन्होंने पैदल केवल एरका, तृणमुष्टि का ही उपयोग किया था। शस्त्र स्पर्श किया ही नहीं था। श्रीसंकर्षण के स्वधाम जाते ही उनका दिव्यरथ सायुघ स्वयं अदृश्य हो गया। सम्मुख चलता संघर्ष, कोलाहल सब समाप्त हो गया। वहाँ कोई भी गति नहीं दीखती थी। अब दारुक को चिन्ता हुई कि उसके स्वामी कहाँ गये? उन श्रीद्वारिकाधीश का क्या हुआ? श्रीकृष्णचन्द्र का सारथि, उनका अनन्य सेवक, मथुरा से सदा साथ रहने वाला दारुक- वह अत्यन्त व्याकुल हो उठा। उसने अपने नेत्रों के सम्मुख जो अकल्पनीय संहार देखा था उससे उसकी सोचने की शक्ति लुप्तप्राय हो गयी। शवों से पटी पड़ी वह योजनों की भूमि- दारुक मूर्च्छित नहीं हो गया, यही आश्चर्य की बात है किन्तु उसके नेत्रों के आगे अन्धकार छा गया। उसे यह भी पता नहीं रहा कि वह अपने उस गरुड़ध्वज रथ को लेकर किधर जा रहा है, कहाँ भटक रहा है। न दिशा का ज्ञान रहा, न सोचने की शक्ति। केवल एक धुन- उसके स्वामी कहाँ हैं? किस स्थिति में हैं? क्या कर रहे हैं? दारुक को स्वयं पता नहीं कि वह कहाँ-कहाँ गया और किधर भटकता फिरा। वह तो सहसा तब चौंका जब वायु का एक झोंका आया और उसकी नासिका में तुलसीदलों की परिचितगन्ध गयी। उसने इधर-उधर देखा- यह नीलकमल की गन्ध से मिश्रित तुलसी की सुगन्ध, यह तो उसके स्वामी के श्रीअंग की सुरभि है। उन वनमाली के शरीर की गन्द कहीं दारुक भूल सकता है। 'कहाँ हैं स्वामी?' दारुक की नासिका ने उसे जगा दिया था। वह उस सुगन्धि की दिशा में ही रथ लेकर बढ़ा। अब तक प्रकाश हो चुका था। दूर से ही अश्वत्थमूल में शान्त विराजमान श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करके दारुक रथ से उतरा और सम्मुख जाकर भूमि पर दण्डवत गिरा। दारुक प्रणिपात करके उठते ही आश्चर्य से हक्का-वक्का फटे-फटे नेत्रों से देखता रह गया कि उसके द्वारा लाया गया वह गरुड़ध्वज रथ अश्वों के साथ आकाश में उड़ा और अदृश्य हो गया। इसी समय जो तेजोमय गदा, चक्रायुध साकार श्रीकृष्णचन्द्र के चारों ओर स्थित थे, वे आकाश में जाकर अदृश्य हो गये। दारुक आश्चर्य, शोक से विमूढ़ एक शब्द नहीं बोल पा रहा था। वह एकटक उन्मत्त की भाँति श्रीद्वारिकाधीश की ओर केवल देख रहा था। अपने सारथि की दशा देखकर वे श्रीजनार्दन बोले- 'दारुक! तुम शीघ्र द्वारिका चले जाओ। वहाँ के लोगों को यहाँ जो परस्पर संहार हुआ है वह बतला दो। शंखोद्धार समाचार दे दो। श्रीसंकर्षण के स्वधाम पधारने का संवाद दे दो और मेरी भी अवस्था बतला दो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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