श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. उपसंहार
गुरु वायूर श्रीवसुदेव जी अपने रहते अपने आराध्य मूर्ति को किसी को देना नहीं चाहते थे वे और सच यह है कि दे सकते भी नहीं थे क्योंकि वह मूर्ति तो उनके कुल में परम्परा से पूज्य थी और अभी वसुदेव जी के पिता शूरसेन जी ही उसकी पूजा-अर्चा करते थे। यह मूर्ति वे अपने साथ शंखोद्वार ले जाते किन्तु उन्हें वहाँ से शीघ्र लौट आने की आशा थी। उन्हें क्या पता था कि उसी दिन सायंकाल कुछ और सुनने को मिलेगा तथा कोई अब द्वारिका लौट ही नहीं सकेगा। देवता सात्त्विक होते हैं किन्तु भोग-परायण है। उनको पूजा लेनी ही आती है, पूजा करने की श्रद्धा उनमें नहीं होती और न वे किसी अर्चाविग्रह का महत्त्व ही समझ पाते। अतः देवराज उस अर्चाविग्रह को वह महत्त्व नहीं दे सके जो दिया जाना चाहिए था। सुर तथा सुरराज भी द्वारिका से अपने उपहार ही नहीं वह सब कुछ समेटने में लग गये थे जो उनके लिए स्पृहणीय था और द्वारिका में तो कुछ ऐसा था जो सुरों के लिए सुदुर्लभ ही लगता था। वहाँ के तप, लता, वीरुध, पात्र, मणि आदि सब स्पृहणीय थे। अतः सुर, गन्धर्वादि उन्हें समेटने तथा स्वर्ग ले जाने में लगे थे। इसमें उस अर्चामूर्ति की ओर कौन ध्यान देता। यह ऐसा ही था जैसे कोई सम्पन्न भरा-पूरा नगर अकस्मात जनहीन हो जाय। कम ही सत्पुरुष ऐसे होते हैं जो ऐसे अवसर का लाभ उठाकर उपयोगी वस्तुएँ उठा ले जाने का लोभ-संवरण कर सकें। सुर कोई अपरिग्रही साधक तो थे नहीं। अतः उनका लोभ उस समय अनियन्त्रित हो उठा था। जब द्वारिका जलमग्न हुई, उसका अधिकाँश वैभव देवलोक पहुँच चुका था किन्तु भगवान नारायण की वह श्रीमूर्ति समुद्र में ही डूब गयी। देवगुरु वृहस्पति जी को अपने शिष्य सुरों की यह उपेक्षा अच्छी नहीं लगी। उन्होंने इस तथ्य को समझा कि सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण का संदेश आज्ञा माना जाना चाहिए और उसकी उपेक्षा सुरों के लिए आगे अनर्थ का कारण हो सकती है। अतः उन्होंने वायु को उस मूर्ति को सागर गर्भ से निकालने का आदेश किया। वायु देवता ने प्रचण्ड तूफान का रूप धारण किया। समुद्र उस अन्धड़ से उन्मथित होने लगा और उसका परिणाम यह हुआ कि सागर तल में डूबी वह मूर्ति द्वारिका से बहुत दूर दक्षिण समुद्र के तट पर, सागर पुलिन पर जल से बाहर आ गयी। इस मूर्ति को समुद्र तट से कुछ और भीतर हटाकर उपयुक्त पवित्र स्थान पर देवगुरु ने स्वयं स्थापित किया और उसकी सविधि अर्चा की। सुरगुरु तथा वायु के द्वारा पुनरुद्धार होने के कारण उस श्रीमूर्ति का और जहाँ उसकी स्थापना हुई उस स्थान का भी नाम गुरुवायूर पड़ गया। दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में कोनीन के बन्दरगाह से कुछ दूरी पर भगवान आदिशंकराचार्य की जन्मभूमि कालड़ी है और वहाँ से कुछ और पूर्व गुरुवायूर पावन तीर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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