श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
58. मोह-भंग
'ये श्रीकृष्णचन्द्र अपने मृत भाईयों को ले आये थे।' उग्रसेन जी से उनकी महारानी बराबर आग्रह कर रही थीं। यज्ञ के समय वे साथ थीं। अवसर मिलते ही नेत्रों में अश्रु भर लेती थीं- 'मैं भी अपने पुत्र को एक बार देख पाती।' महाराज उग्रसेन के सब पुत्र मारे जा चुके थे। अश्वमेध करें उग्रसेन जी, यह उन्हें कई बार कंस ने कहा था किन्तु उसकी बुद्धि मारी गयी। वह पिता का ही विरोधी बन गया। अब अवश्मेध यज्ञ के समय माता को अपने प्रचण्ड पुत्र का स्मरण बहुत व्याकुल कर रहा था। कंस के अत्याचार- श्रीकृष्ण का शत्रु ही रहा कंस। अब महाराज उग्रसेन कैसे कहें श्रीकृष्णचन्द्र से कि वे कंस को फिर एक बार पृथ्वी पर ले आवें। इसे सुनकर क्या सोचेंगे वे जनार्दन। वसुदेव-देवकी ही क्या सोचेंगे। दूसरे लोग क्या कहेंगे? श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं। यज्ञ का अवभृथ स्नान हो गया। आगत ऋषि -महर्षि विदा हो गये। अतिथि चले गये। तब महाराज उग्रसेन को अवकाश मिला वे यादवों के साथ घिरे महारानी के साथ बैठे थे कि द्वारिकाधीश बोले- 'महारानी! आप अपने पुत्रों को देखना चाहती हैं?' कंस माता महारानी रुचिमती ने अत्यन्त कातर, आग्रहपूर्ण दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर देखा। श्रीकृष्णचन्द्र ने ऊपर दृष्टि उठाई और आह्वान किया। रत्नजटित ज्योतिर्मय विमान गगन से उतरता दृष्टि पड़ा। विमान धरा पर उतरा। उसमें से नौ भगवत्पार्षद निकले और उन्होंने कंस तथा उसके भाईयों का स्वरूप धारण कर लिया। वे कंस तथा उसके भाई श्रीबलराम एवं श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में साष्टांग प्रणिपात करके हाथ जोड़कर खड़े हो गये। दूसरे किसी को ओर उन्होंने देखा ही नहीं। महाराज उग्रसेन और उनकी महारानी सतृष्ण, स्नेहपूर्ण दृष्टि से उन्हें देख रहे थे। उन्हें आशा थी कि ये उनको भी प्रणाम करके उनसे मिलेंगे। 'ये महाराज तथा महारानी आप सबके माता-पिता हैं। इन्हें प्रणाम करें और इनसे मिलें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने उनसे कहा। 'हमने असंख्य जन्म लिये पृथ्वी पर। किस जन्म में कौन हमारे माता-पिता रहे, यह न हमें स्मरण हैं, न हम स्मरण करना चाहते।' उन्होंने अनुमति माँगी और पुनः उनका स्वरूप भगवत्पार्षदों जैसा हो गया। 'मेरा मोह नष्ट हो गया।' महारानी ने महाराज उग्रसेन से कहा और श्रीकृष्ण के सम्मुख मस्तक झुका दिया। महाराज उग्रसेन के मन में मोह नहीं था, ऐसा वे नहीं समझते थे। लेकिन आप उनका भी मोह-भंग हो गया था। महारानी ने पीछे एकान्त में पति से कहा- 'मेरे पुत्र जीवित रहते तो अपने कर्मों से उन्हें पता नहीं कौन-से नरकों में जाना पड़ता किन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें मारकर बैकुण्ठ प्रदान कर दिया। ऋषि-मुनियों की यह बात आज मैं ठीक-ठीक समझ सकी हूँ। श्रीकृष्ण इतने कृपामय हैं, आज मैं अपने को धन्य मानती हूँ इनके दर्शन करके।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज