श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. वाणासुर की पराजय
वाणासुर को अवसर मिल गया था। वह चाहता तो अब भी युद्ध समाप्त हो सकता था किन्तु उसका युद्धोन्माद अभी शान्त नहीं हुआ था। वह फिर रथ में बैठकर नगर से बाहर युद्धभूमि में आया। इस बार वाणासुर अपने सब दिव्य अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर आया था। उसके रथ में चारों ओर सूर्य, चन्द्र, तारकादि के चिह्न बने थे। महामंत्री कुम्भाण्ड मूर्च्छा दूर होने पर नगर में चले गये। वे इस बार बाण का सारथ्य कर रहे थे। कुमार कार्तिक फिर वाणासुर के स्नेहवश युद्ध में आ गये। इस बार उन्होंने अपनी अमोघ शक्ति उठायी तो श्रीकृष्ण ने हुंकार करके ही उसे शांत कर दिया। कुमार संकट में पड़ गये किन्तु देवी कोटरा ने उन्हें डाँटा- 'वाण को तो युद्ध लिप्सा है। तू क्यों फिर यहाँ आया है? इन सर्वेश्वर के सम्मुख किसी अस्त्र की अमोघता और किसी का अमरत्व नहीं टिकता, यह तुझे नहीं दीखता?' माता की फटकार पाकर स्कन्द युद्ध भूमि से विदा हो गये। माता अपने पुत्र का संकट सह नहीं सकती। देवी वहाँ से दौड़ी और श्रीकृष्ण के सम्मुख जाकर पुकारा उन्होंने- 'आप मुझे जीवित पुत्र की जननी बनाइये।' 'आप निर्भय रहें। श्रीकृष्णचन्द्र ने बहुत गंभीर होकर कहा- 'मैं भगवान शिव का अपमान सह नहीं सकता। जिन सहस्र भुजाओं के गर्व में आकर यह उन देव से ही युद्ध याचना की धृष्टता करने गया था उन भुजाओं को मैं नहीं छोडूँगा। यह अब मेरी ही भाँति चतुर्भुज होकर रहेगा और अजर-अमर आप दोनों का नित्य पार्षद होगा।' भुजाएँ कटती जा रही थीं किन्तु बाण गर्जना करता शेष भुजाओं से त्रिशूल, शक्ति आदि उठाये ही जा रहा था। चक्र तो प्रतिकार के प्रयत्न से अधिक प्रचण्ड होता है। चार भुजाएँ रह गयीं और चक्र की ज्वाला से दग्ध वाणासुर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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