श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
71. वाणासुर
दैत्यराज बलि के ज्येष्ठ पुत्र वाणासुर ने क्रीड़ा करते स्वामी कार्तिक को देखा तो उनका वज्रपुष्ट शरीर सौन्दर्य देखकर चकित रह गया। अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुगठित और वर्ण ऐसा मानो पाटल दल से प्रकाश की किरणें झर रही हों। असुर का सबसे बड़ा आकर्षण शरीर। स्कन्द के शरीर की शोभा से वह मुग्ध हो उठा। 'शिव का पुत्र इतना सुन्दर।' बाण ने निश्चय किया कि वह भी शिव-पुत्र बनेगा। उग्र तप प्रारंभ कर दिया उसने। भगवान आशुतोष तो अनर्थ संकल्प रखने वाले असुरों पर भी कृपा करते हैं, बाण का संकल्प तो उन्हें पिता बनाने का था। वे शशाङ्कशेखर प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। वाणासुर ने माँगा- 'मैं श्रीगिरिजेशनन्दिनी से आपका पुत्रत्व चाहता हूँ। इस वरदान की एक कठिनाई थी। पहिले वाणासुर मरें और तब पार्वती का पुत्र बनकर उत्पन्न हो। वाणासुर तो प्रस्तुत था मरने को भी, किन्तु करुणा-वरुणालय को यह बड़ा क्रूर कर्म लगा। उन्होंने उसी समय भगवती पार्वती से कहा- 'देवि! इसे पुत्र रूप में स्वीकार कर लो। यह स्कन्द का छोटा भाई रहेगा और जहाँ उन अग्निकुमार का आविर्भाव हुआ है, वह शोणितपुर इसकी राजधानी होगा।' कुमार कार्तिक ने प्रसन्न होकर अपने इस अनुज को 'अग्निध्वज' और 'मयूर वाहन' प्रदान किया। 'मेरा बड़ा पुत्र षड़ानन द्वादश बाहु है।' वाणासुर को इस संपूर्ण वरदानों में एक ही बात बहुत खटक रही थी कि वह अपने परमाभीष्ट इन माता-पिता से दूर शोणितपुर में रहने को कह दिया गया था। सहस्र भुज होते ही वह वहीं उनसे ताली बजा-बजाकर ताण्डव नृत्य करते हुए उमामहेश्वर की स्तुति करने लगा। नन्दीश्वर ने वाद्य प्रस्तुत किये तो उसने पूरे पाँच-सौ वाद्य उठा लिये सहस्र करों में। अकेला वाणासुर बडे से बड़े वाद्य-मण्डल से बड़ा था। उसके हाथों में स्वरताल से मिले पाँच-सौ वाद्य थे और वह ताण्डव नृत्य करता हुआ उन्हें बजाता जा रहा था। मुख से स्तवन का संगीत चल रहा था। भगवान भर्ग, नित्य मंगलमय प्रभु अत्यन्त संतुष्ट होकर बोल उठे- 'वत्स! तुम्हें जो भी अभीष्ट हो, माँग लो।' 'एवमस्तु!' उन दयाधाम से प्रार्थना करके दूसरी बात तो कभी कोई सुनता ही नहीं। वाणासुर ने शोणितपुर में राजधानी बनायी तो उमा-महेश्वर भी वहीं रहने लगे। वाणासुर की पुत्री उषा तो भगवती पार्वती की अत्यन्त स्नेहभाजना हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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