श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. कालिन्दी-कल्याण
सात्यकि को सुयोग मिला और पार्थ ने भी सपरिश्रम उन्हें प्रशिक्षण दिया। एक वर्ष इन्द्रप्रस्थ रहकर श्रीद्वारिकाधीश लौटे तो उनके रथ में उनकी एक नवीन महारानी साथ आयीं। उनका विवाह भी द्वारिका आकर उत्तम मुहूर्त देखकर हुआ और पूरी धूम-धाम से हुआ। इस बार जो नवीन महारानी आयीं थीं वे श्रीकृष्णचन्द्र के समान ही अतसीकुसुम श्यामांगा थीं और उन्हें भी पीतवसन, पीतांगराग ही प्रिय था। यदुवंश इस संबंध से पृथ्वी में गौरवान्वित हो गया; क्योंकि ये नवीन महारानी कालिन्दी भगवान भुवनभास्कर की साक्षात पुत्री थीं। श्रीकृष्ण का संबंध इस विवाह से देवताओं से सीधे हो गया। 'तुम तो मुझसे भी पूर्वजाता हो।' श्रीसंकर्षण की पत्नी रेवती देवी ने अपनी इन देवरानी से हँसकर कहा था- 'मैं पितृवंश के नाते तुमसे बहुत छोटी हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह पाने का स्वत्व है।' इस वैवस्वत मन्वन्तर के सतयुग में विवस्वान मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में महाराज रेवती की पुत्री हैं रेवती जी और सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान सूर्य से उनकी पत्नी संज्ञा से उत्पन्न, संयमिनी के स्वामी, जीवों के कर्मनियन्ता यमराज की साक्षात स्वसा कालिन्दी। 'आप बड़ी हैं- बड़ा सौभाग्य पाया आपने। आपको अपने आराध्य को प्राप्त करने के लिये कुछ नहीं करना पड़ा।' देवी कालिन्दी ने विनम्र होकर कहा- 'मुझे बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी। बहुत तप करना पड़ा। बहुत कुछ सीखना पड़ा। इतना सब करके आपके देवर के चरण मिले मुझे।' 'तुम अपनी कथा स्वयं सुना दो।' रेवती जी ने कहा। रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती भी आ गयी थीं। सब उत्सुक थीं; किन्तु अभी सबका संकोच मिटा नहीं था। भले कालिन्दी उनसे पीछे इस सदन में आयीं, वे साक्षात यमराज की बहिन हैं, सूर्यनारायण की पुत्री हैं। माता देवकी तक अब भी झिझक उठती हैं जब ये उनकी चरणवन्दना करने बढ़ती हैं। 'मैं बहुत अबोध थी शैशव में। मुझे पता ही नहीं था कि विवाह क्या होता है। विवाह की क्या मर्यादा है। इन श्रीद्वारिकाधीश के वर्ण के किंचित सदृश हैं मेरे भाई धर्मराज का वर्ण। हम दोनों एक साथ माता के गर्भ में रहे। एक साथ उत्पन्न-युग्मज हैं। भाई मुझसे कुछ क्षण ही बड़े हैं।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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