श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अश्वमेध-यज्ञ
'मेरी इच्छा अश्वमेध यज्ञ करने की हैं।' महाराज उग्रसेन ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा और उनका अनुमोदन प्राप्त हो गया। देवर्षि ने अश्व लक्षण बतलाया। चन्द्रश्वेत, श्यामकर्ण, लालमुख, पीतपुच्छ अश्व उत्तम होता है। सम्पूर्ण शरीर श्वेत केवल दक्षिण कर्ण श्याम अश्व मध्यम तथा दोनों कर्ण श्याय अश्व निम्नकोटि का होता है। महाराज उग्रसेन की अश्वशाला में मध्यम अश्व थे किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र की अश्वशाला में जब उत्तम अश्व अनेक थे, मध्यम अश्व क्यों ग्रहण किया जाता। चैत्र पूर्णिमा को अश्व छूटना था। महूर्त और विधि निश्चित हो गयी। राजसूय यज्ञ में दिग्विजय करना होता है। अनेक दल भेजे जा सकते हैं विभिन्न दिशाओं में दिग्विजय करने के लिए और दिग्विजय का समय नहीं निर्धारित होता। अश्वमेध में अनेक प्रतिबन्ध हैं। इसमें मन्त्रपूत दिव्यशक्ति सम्पन्न अश्व छोड़ा जाता है। अश्व की गति को नियन्त्रित नहीं किया जाता। वह स्वयं जहाँ-जहाँ जाय उसके रक्षक पीछे चलते हैं। स्वयं अश्व वहाँ-यहाँ जाता है, जहाँ उसके पकड़े जाने की संभावना हो। अश्व को एक वर्ष के भीतर लौट आना चाहिए। जहाँ-जहाँ अश्व मल या मूत्र त्याग करता हैं, वहाँ-वहाँ हवन तथा गोदान किया ही जाना चाहिए। यजमान अश्व के लौटने तक सपत्नीक ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, एकाहार हविष्यान्न का, त्रिकाल स्नान, संध्या के नियमों का पालन करते हुए चन्दन, माल्य, अङ्गराग, आभरण आदि का त्याग करके ऋत्विजों के साथ हवन करता रहेगा। श्री गर्गाचार्य ने महाराज उग्रसेन को नियम-निर्देश किये और यज्ञ-दीक्षा दी। यादव-सभा में अश्व-रक्षा का बीड़ा रखा गया तो उसे अनिरुद्ध ने उठा लिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की अश्व की रक्षा, अनुगमन तथा समस्त नियमों का निर्वाह करते हुए एक वर्ष में लौट आने की। साम्ब ने अनिरुद्ध का साथ देने का संकल्प किया। गद प्रभृति अनेक महारथी, अनेक श्रीकृष्ण-पुत्र अश्व-रक्षार्थ सन्नद्ध हो गये। स्वर्णपत्र पर रत्नाक्षरों में अङ्कित हुआ- महाराजाधिराज उग्रसेन का यह अश्वमेधीय अश्व हैं। जिन्हें उनका सार्वभौमत्व स्वीकार नहीं और यादववाहिनी से युद्ध करने का साहस हैं, वे अश्व पकड़ें। स्वर्णपत्र अश्व के मस्तक पर बाँधा गया। उसकी विधिवत पूजा हुई। अनिरुद्ध का विजयाभिषेक विप्रों ने किया। उत्तम मुहूर्त में अश्व छूटा। अधिकांश राजाओं ने जिनके राज्यों में से अश्व निकला उसका और अनिरुद्ध के साथ यादवी सेना का स्वागत ही किया। अश्व को पकड़ा सबसे पहिले माहिष्मतीपुरी के नरेश इन्द्रनील के युवराज नीलध्वज ने। वे आखेट करने निकले थे। अश्व को देखा और पकड़ कर राजधानी ले गये तो पिता ने पुत्र का समर्थन किया। युद्ध होना अनिवार्य था और युद्ध में साम्ब ने नीलध्वज को मूर्च्छित कर दिया। महाराज इन्द्रनील भी पराजित होकर पुरी में भागने की विवश हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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