श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29.पारिजात-पुष्प
देवर्षि नारद के लिए द्वारिका - श्रीद्वारिकाधीश का सान्निध्य ब्रह्मलोक से अधिक प्रिय हो गया था। वे घूम-फिरकर आते ही रहते थे। महोत्सव के समय भी आ गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने तथा दूसरे सबने उनको प्रणिपात किया। आसन देकर पूजन किया। देवर्षि ने अपनी जटा में लगा पारिजात-पुष्प निकाला और श्रीकृष्णचन्द्र को दे दिया। श्रीकृष्ण ने वह पुष्प वाम पार्श्व में बैठी महारानी रुक्मिणी को सप्रेम दे दिया- 'यह आज व्रतोद्योपन के दिन तुम्हें देवर्षि का प्रसाद।' देवी रुक्मिणी ने लेकर उसे सादर अपने केश में लगा लिया। 'देवि! भुवनवन्दनीये! पतिव्रते! यह पुष्प तुम्हारे ही योग्य है।' देवर्षि नारद बोल उठे- 'यह कल्पवृक्ष का दिव्य प्रसून मानव के एक वर्ष तक ताजा रहता है। मुरझाता नहीं है। इसका आकार तथा रंग उपभोक्ता की इच्छानुसार परिवर्तित होता रहता है। इससे मनोवांछित सुरभि निकलती रहेगी। यह अभीष्ट शीतलता अथवा उष्णता देता रहेगा। इससे अभीष्ट संगीत ध्वनि निकलती रहती है और रात्रि में जितना चाहो, उतना प्रकाश भी।' 'यह दिव्य पुष्प ऐश्वर्य तथा पुत्र देने वाला है। इसे धारण करने वाले की बुद्धि अशुभ चिन्तन में नहीं लगती।' देवर्षि ने पुष्प का प्रभाव बतलाया- 'तुम वर्ष भर जितने और जैसे पुष्प चाहोगी, यह देता रहेगा। इसे धारण करने वाले को रोग नहीं होते। क्षुधा-पिपासा का कष्ट नहीं होता। जरा नहीं आती।' 'एक वर्ष पूरा होने पर तुम्हारे पास से चला जायगा और कल्पवृक्ष में जाकर उससे एक हो जायगा। भगवती उमा, देवमाता अदिती, इन्द्राणी, शची, सावित्री, लक्ष्मी इस पुष्प को नित्य धारण करती हैं। तुम जानती ही हो कि देवताओं का एक दिन मानव के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः उनको यह पुष्प प्रतिदिन मँगाकर धारण करना पड़ता है। यह उनके पास भी उनके एक दिन ही रहता है।' देवर्षि ने अन्त में कह दिया- 'मुझे आज पता लगा कि श्रीकृष्णचन्द्र की सर्वाधिक अनुराग-भाजना तुम्हीं हो। क्योंकि यह मन्दारपुष्प तुम्हीं को मिला। देवर्षि की अन्तिम बात ने दूसरा ही रूप धारण कर लिया। वहाँ दासियों में और महारानियों में भी रुक्मिणी जी की प्रशंसा होने लगी- 'वे ज्येष्ठा हैं, ज्येष्ठ पुत्र की माता हैं, उन महापट्टमहिषी का यह सम्मान उचित ही है। वे सबकी पूजनीया हैं।' महारानी सत्यभामा जी की दासियाँ भी वहाँ थीं। उन्होंने जाकर यह बात उत्साहातिरेक में अपनी स्वामिनी से कहा। बात कही गयी थी उत्साह में आकर, किन्तु मानिनी सत्भामा जी को सहन नहीं हुई। उन्होंने श्वेतवस्त्र पहिन लिये, आभूषण उतार दिये और सिर पर कोप-सूचक श्वेत पट्टिका बाँधकर कोप-भवन चली गयीं। श्वेत चन्दन लगा लिया, केशों की एक वेणी बना ली।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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