श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. राजसूय-यज्ञ की यात्रा
श्रीद्वारिकाधीश अनाथनाथ, अशरणशरण, सर्वसमर्थ, करुणावरुणालय हैं। विश्व के पीड़ित प्राणों की, आतों की प्रार्थना उन्हीं के चरणों तक पहुँचती है। ऐसे किसी को कभी भी रोकने की अनुमति नहीं है। द्वारपालों ने उस व्यक्ति को सीधे सुधर्मा सभा में पहुँचा दिया। उस आगत ने पहुँचते ही प्राणिपात किया सबको और स्पष्ट कह दिया- 'मैं अतिथि नहीं हूँ अतः आप सत्कार की चिंता छोड़ दें। जो निरालम्ब, असहायों की विपत्ति के एकमात्र सहायक हैं, उन्हीं के चरणों तक कुछ उत्पीड़ित निरुपायों की प्रार्थना पहुँचाने आया हूँ।' 'आप आसन ग्रहण करें।' जो मगधराज के कारागार में पड़े हैं, वे कितने प्रयत्न से किसी को अपना सन्देशवाहक बना सके होंगे यह समझा जा सकता था। सन्देश कैसे पाया जा सका होगा, सन्देशवाहक क्यों अपने को अपरिचित ही रखना चाहता है, यह भी स्पष्ट था। वह उन बन्दी नरेशों का ही कोई स्वजन सुहृद होगा और मगधराज का प्रत्यक्ष कोपभाजन बनने से बचना चाहे, यह स्वाभाविक है। उसने जो साहस किया वही बहुत अधिक है। उससे किसी ने भी परिचय आदि नहीं पूछा। उसने राजाओं के सन्देश को, प्रार्थना को सुना दिया- 'योगेश्वर! अप्रमेयात्मा परमप्रभु! आपका अवतार पृथ्वी पर दुष्टों का दमन तथा सत्पुरुषों का रक्षण करने के लिए ही हुआ है अतः कोई एक आपके निर्देश की अवज्ञा कर रहा है अथवा हम आपके जन अपने ही कर्मों का यह दुष्फल भोग रहे हैं, यह हम नहीं जानते।' 'आपके श्रीचरणों का स्मरण ही समस्त शोक-संताप का शोषण कर लेने वाला है। हम आपके सेवक हैं, आपके शरणापन्न हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर कर मारने की घात में बैठा हो, यही अवस्था इस समय जरासन्ध ने हम सबकी कर रखी है। प्रतिक्षण मृत्यु की प्रतीक्षा से आर्त हम अपने आश्रितों को आप ही इस आतंक से मुक्त कर सकते हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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