श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
सदा से सृष्टि असंख्य रहस्यों से परिपूर्ण है। सृष्टि का संचालक चेतन है और सृष्टि में सर्वत्र चेतना परिपूर्ण है। चेतन सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है अतः सृष्टि संचालक तथा दूसरे चेतन समर्थ तत्त्व कब क्या करेंगे कोई कह नहीं सकता। इस संबंध में कोई नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। एक बार द्वारिका में एक ब्राह्मण दंपति के प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ और वह जन्म लेते ही मर गया। द्वापर के लिए यह घोर अनर्थ की बात थी और द्वारिका के लिए तो सर्वथा अनहोनी थी। यहाँ वृद्ध भी युवावस्था भोग रहे थे, जहाँ रोग-शोक का प्रवेश नहीं था, वहाँ अल्पायु मृत्यु। प्राणी के रोग-शोक, यश-अपयश, जन्म-मृत्यु ऐश्वर्य-दरिद्रता अपने पूर्वकृत कर्म से मिलती है किन्तु अशुभ-कर्मा पापी जीव का जन्म द्वापरान्त में द्वारिका में? कैसे सम्भव था कि वह अल्पायु हो और जिन ब्राह्मणोत्तम को श्रीकृष्णचन्द्र ने सादर अपनी पुरी में बसाया था उनका कोई अपकर्म ऐसा कैसे हो सकता था कि उन्हें पुत्र-वियोग प्राप्त हो। ब्राह्मण का पुत्र उत्पन्न होते ही मर गया तो उन्हें दु:ख होना स्वाभाविक था। उन्हें अपने वर्तमान कर्म की शुद्धता पर पूर्ण आस्था थी। उनका जन्म उत्तम, पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ, श्रीहरि के सान्निध्य में उनके धाम में निवास मिला, यही पर्याप्त था यह जानने को कि उनके पूर्वजन्म के कर्म भी पवित्र हैं। पीछे तो उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के परम विद्वान सर्वज्ञ महर्षि गर्गाचार्य से भी पूछ लिया था। महर्षि ने भी उनकी धारणा का समर्थन ही किया था- 'आपको पुत्र-वियोग प्राप्त हो, ऐसा कोई योग आप अथवा आपकी पत्नी के प्रारब्ध में मुझे नहीं दीखता है। योग तो ऐसे हैं कि आपके पुत्रों को दीर्घ जीवन मिलना चाहिए और जन्म से ही कोई महत्सान्निध्य प्राप्त होना चाहिए। उसकी इस मृत्यु का कोई ऐसा कारण है जो मेरी गणना में नहीं आता।' यह तो पीछे की बात है। ब्राह्मण ने तो पुत्र के मरते ही निर्णय कर लिया था कि इसमें उसका कोई दोष नहीं है। व्यक्ति को माता-पिता, पुत्र, सेवकादि के कर्मों का भी भाग प्राप्त होता है। ब्राह्मण के माता-पिता परम पुण्यात्मा रहे थे और अब इस लोक में नहीं थे। पुत्र अभी कोई बचा ही नहीं। विरक्त ब्राह्मण के सेवक कहाँ? अब केवल राजा रह गया जिसके अशुभ कर्म का फल प्रजा को भी भोगना पड़ता है। ब्राह्मण को निश्चय हो गया कि राजा के दोष से ही उसके पुत्र की मृत्यु हुई है। मनुष्य की किसी में दोष-दृष्टि हो जाय तो उसे बिना हुए भी उस व्यक्ति में दोष दीखने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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