श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. मिथिला-यात्रा
उन दिनों मिथिला के सिंहासन पर महाराज बहुलाश्व थे। तत्त्वज्ञान उनकी पैतृक सम्पत्ति थी और भक्ति से परिपूत हृदय तो मिथिला में सर्वसामान्य तक का था। विदेह के लिए देहाभिमान के साहित्य की चर्चा व्यर्थ है। वैराग्य तो स्वरूप है उनका। जब से भगवान बलराम ने मिथिला को अपना सान्निध्य देकर सनाथ किया, महाराज बहुलाश्वर की उत्कण्ठा अत्यधिक बढ़ गयी कि श्रीहरि उनके सदन को पवित्र करें। श्रीसंकर्षण जीवों के परमाचार्य, उन्होंने जिसे अपना लिया, श्रीकृष्ण उससे दूर रह सकते हैं? मिथिला तो कई वर्ष रह गये थे वे श्रीहलधर किन्तु महाराज बहुलाश्व की प्रीति अद्भुत थी- 'आराध्य जब उचित समझेंगे, जब अधिकारी समझेंगे तब स्वयं पधारेंगे। उन्हें संकोच में क्यों डाला जाय। वे करुणा वरुणालय किसी की सच्ची पिपासा होने पर उसे परितृप्त करने से रुक कैसे सकते हैं।' महाराज बहुलाश्व प्रतीक्षा करते रहे- 'श्री द्वारिकाधीश स्वयं कृपा करके पधारें इसकी प्रतीक्षा, दृढ़ आस्था- हम उनके हैं और वे स्वयं अपनायेंगे ही। न स्वंय द्वारिका गये, न किसी के द्वारा आमंत्रण या प्रार्थना भेजी। केवल स्थिर आस्था लिये प्रतीक्षा करते रहे। प्राणी प्रतीक्षा ही कर सकता है और जहाँ उत्कण्ठा है, अभीप्सा है, स्थिर आस्था है, वहाँ वे अनन्त दयाधाम, भक्तवत्सल दूर कब तक रह सकते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र ने द्वारिका में बिना कारण अचानक घोषणा कर दी कि वे मिथिला जायेंगे। मिथिला की इस यात्रा में न सेना, न उद्धव या सात्यिक। श्रीकृष्ण त्रिभुवन के रक्षक उनको सुरक्षा की आवश्यकता कहाँ होती है। तत्त्वज्ञों के मुकुटमणि के यहाँ जाना था तो उसके उपयुक्त साथ चाहिए। अतः साथ में लिये महर्षिगण- देवर्षि नारद, वामदेव, महर्षि अत्रि, वेदव्यास जी, भगवान परशुराम, असित, आरुणि, श्रीशुकदेव जी, देवगुरु बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन, गौतम, जैमिनी प्रभृति सब प्रसिद्ध महर्षि साथ ले लिये। सबको अपने ही रथ पर बैठाया और यात्रा प्रारंभ हो गयी। द्वारिका से बहुत दूर है मिथिला। श्रीकृष्ण चाहते तो उनका रथ एक दिन में भी पहुँच सकता था। शतधन्वा का पीछा करते एक दिन में एक बार मिथिला के वाह्य भाग तक हो भी आये थे किन्तु इतने महर्षियों को साथ लिया तो मार्ग के भी पुण्यात्माओं को पवित्र करते जाना था। आनर्त, मरुधन्व, कुरुजांगल, कङ्क, मत्स्य , पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल और अर्ण राज्यमार्ग में मिले। इनमें से आनर्त अपना ही प्रदेश था। पांचाल नरेश द्रुपद, कुन्ति नरेश कुन्तिभोज सम्बन्धी थे और केकय श्रीकृष्णचन्द्र की महारानी भद्रा का पितगृह। यहाँ तो स्वागत सत्कार होना ही था। मार्ग के ग्रामों तथा वन्य प्रान्त के झोपड़ों तक के निवासी नर-नारी आ गये थे मार्ग में उपहार करों में लिये। सबका आग्रह, सबकी प्रीति को स्वीकार कर लेना श्रीकृष्णचन्द्र के लिए ही सम्भव है। महर्षिगणों ने प्रारम्भ से ही अनुभव कर लिया कि यह यात्रा श्रीकृष्ण के अमित ऐश्वर्य अचिन्त्य प्रभाव की यात्रा है। अपने दर्शन को उत्कण्ठित प्राणों को परितृप्त करने, पुण्यजनों को प्रीति का वरदान देने ये प्रेमधन निकले हैं। इसमें देश-काल कैसे बाधक बन सकते हैं। देश-काल तो इन सर्वात्मा में कल्पित प्रतीति मात्र हैं। एक वन्य कुटीर से लेकर राजसदन तक के लोगों का आग्रह- 'आप इन भुवनवन्द्य महर्षियों के साथ आ गये हैं तो हमारे आवास को, हमारे कुल को पवित्र कर दें अपने श्रीचरणों से।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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