श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शची-संतोष
सत्यभामा जी ने इसे स्वीकार कर लिया। उनके प्रांगण में लगा पारिजात तरु अद्भुत था। वह शीत ऋतु में नन्हें पौधे के समान छोटा हो जाता था और आतप को तनिक भी रोकता नहीं था। ग्रीष्म में वह बढ़कर सम्पूर्ण द्वारिका को अपनी छाया में ले लेता था। उस पर श्वेत कोकिल सदा कूजती और स्वर्गीय भ्रमर नन्दन-कानन त्यागकर उसके पुष्पों की सुरभि से आकर्षित आ गये थे। शची के लिए इस पारिजात का हरण बहुत पीड़ा-दायक हुआ। जब उन्होंने समाचार पाया, क्रोध से अधर काटते पैर पटके उन्होंने। उनको लगा कि सत्यभामा ने उनके मुख पर थप्पड़ मार दिया है। सुरेन्द्र हारकर लौटे। शची की रही-सही आशा भी समाप्त हो गयी। वे क्रुद्ध होकर बोलीं- 'मैं नहीं जानती थी कि सुर इतने कापुरुष हैं।' 'तुमको बहुत गर्व है अपने पितृकुल का तो उसी को पुकार देखो।' सुरपति को पत्नी के प्रति दया नहीं आयी। शची के रुदन ने उन्हें रुष्ट किया। उन्हें इनके कारण ही कल्पवृक्ष खोना पड़ा। सत्यभामा को सुरतरु के पुष्प न देने का गर्व-प्रदर्शन ये न करतीं तो सत्यभामा को यहीं पति-दान को वे प्रस्तुत कर लेते। इनके कारण सुरों ने, लोकपालों ने, ग्रहों तक ने साथ छोड़ दिया। समर में पराजय, श्रीकृष्ण का विरोध, माता पिता की भर्त्सना सब सहनी पड़ी और इतने पर भी यह व्यंग-देवराज के लिए यह असह्य हो गया। 'मैं देख लूँगी उस मानवी का गर्व।' शची सक्रोध उठ खड़ी हुई- 'मेरा पितृकुल सुरों के समान हीनवीर्य और भीरु नहीं हुआ है।' क्रोध में विवेक नहीं रहता। शची क्रोध के आवेश में तलातल पहुँची पिता के समीप; किन्तु उनके पिता पुलोमा ने पुत्री को कोई आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने सब सुनकर शान्त स्वर में कहा- 'पुत्री! तू जानती है कि तेरा पिता केवल दानवेन्द्र का अनुचर है। मैं स्वयं कुछ करने को स्वतन्त्र नहीं हूँ।' शची का उत्साह, आक्रोश आधा वहीं हो गया। पुलोमा महापराक्रमी सही, किन्तु दानवेन्द्र तो मय हैं, यह वे भूल ही गयी थीं। पिता उनको लेकर मय के समीप पहुँचे। मयने सुना तो मस्तक पर हाथ पटक लिया। कई क्षण मौन बने रहे। 'वत्से! तू नहीं समझती कि तूने किसका अपमान अज्ञानवश कर दिया है। शक्र ने भी तेरा तिरस्कार किया; किन्तु इस समय तू जहाँ जायगी, वहीं तुझे सत्कार नहीं मिलेगा। भगवान ब्रह्मा और देवी पार्वती दो क्षण तुझे बैठने नहीं देंगी। अच्छा हुआ कि तू कैलास नहीं गयी।' मय ने अत्यन्त खिन्न स्वर में कहा- 'जिनका तूने अपमान किया है, उनके विपक्षी के लिए किसी लोक में कहीं शरण नहीं है। उसे न सुख मिलता है, न शान्ति।' दूसरा कोई यह बात कहना जो शची उसे तुच्छ कह देती; किन्तु दानवेन्द्र मय की बात सुनकर उनका मस्तक झुक गया। उन्हें लगा कि उनसे कोई बहुत बड़ी भूल हो गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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