श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. दिनचर्या
सब तमोगुणी - रजोगुणी प्राणी निद्रालीन होते हैं इस समय। प्रकृति में केवल सात्त्विकजनों का ध्यान-चिन्तन चल रहा होता है। अतः इस समय साधन-ध्यान करने वाले को समष्टि से अपने अनुकूल सहायता-सात्त्विकता प्राप्त होती है। जब सब साधक, ऋषि-महर्षि, मुनिगण एवं भक्तवृन्द ध्यान करने बैठते हों, उनके जो परम ध्येय हैं, उसे भी तो उनके अनुकूल बनकर ही स्थित रहना चाहिए। समष्टि के उस संचालक को स्वयं भी समष्टि में उनके अनुकूल संस्कार प्रबुद्ध करना चाहिए। श्रीकृष्ण ध्यान करने बैठे जाते थे। प्रसन्न करण, निर्मल इन्द्रिय, स्थिर आसन, क्रोड़ी में पड़े कर पंकज द्वय, भ्रूमध्य स्थिर दृष्टि, अद्वय, सर्वकारण कारण, सर्वावभासक, निर्विकार अपने ही स्वरूप का ध्यान- कभी-कभी अपने किसी अनन्य चिन्तनकर्ता का ध्यान। जिनमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण देह का भेद नहीं है, जिनमें पंचभूत, इन्द्रिय, अन्तःकरण का भेद नहीं है, जिनमें बाहर-भीतर का भेद नहीं, उनका स्वरूप ही मन में नहीं आता। उनका ध्यान जैसे अपनी लीला से वे नरवपु इन्द्रियादि की प्रतीति कराते हैं अपने में वैसे ही उनका ध्यान। लोकादर्श की स्थापना के लिए धरा पर पधारे हैं अतः लोक के लिए आदर्श दिनचर्या भी उपस्थित करनी चाहिए। गगन में अरुणोदय की लालिमा से पूर्व ही नित्य शौचादि सम्पन्न करके संकल्पपूर्वक सविधि स्नान हो जाता था। निर्मल, अनस्यूत, अनाहत वस्त्र धारण करके, उत्तरीय कन्धे पर लेकर सन्ध्या तर्पण में लग जाते थे। सन्ध्या, पितृतर्पण, गायत्री जप, हवन, इतना करते-करते भगवान आदित्य का उदय हो जाता था। क्षितिज पर उठते सूर्यविम्ब को अर्धोदय के समय ही श्रीकृष्णचन्द्र का अर्ध्य उपस्थान प्राप्त होता। देवता, ऋषि, पिता-माता तथा गुरुजन एवं ब्राह्मणों का पूजन, वन्दन, सत्कार और उनकी आवश्यकता पूर्ति उसी समय कर दी जाती। गो-पूजन, सवत्सा, स्वस्थ, दुग्धवती उत्तम गायें अलंकृत करके, श्रृङ्ग स्वर्ण से और खुर चाँदी से मढ़ कर, मुक्ता की माला पहिनाकर, उत्तम वस्त्रों से आच्छादित करके, कैशेय वस्त्र, कम्बल, तिल, स्वर्णराशि के साथ प्रतिदिन गृहस्थ, वेदज्ञ, सुपूजित, वस्त्रालक्ङार विभूषित किये गये ब्राह्मणों को दान की जाती थीं। सहस्र-सहस्र गोदान प्रतिदिन करते थे। गौ, ब्राह्मण, देवता, वृद्धजन एवं गुरुजनों का पूजन, वन्दन, सत्कार समाप्त होने पर मंगल द्रव्यों का स्पर्श करते थे प्रातःकालीन पुण्य स्मरण करते हुए। अश्वत्थ, आमल की, तुलसी, बिल्व ये पावन तरु गो घृत, गो दधि, तीर्थोदक, स्वर्ण ये पावन पदार्थ, गौ वृषभ, उत्तम गज, श्याम कर्ण मंगल पशु, इसी प्रकार पक्षी आदि सब शुभ-शुचि का दर्शन एवं उनका सत्कार का होता है। जब भगवान साम्ब सदाशिव का आह्निक अर्चन हो गया तब अलंकार धारण का अवसर आया। उस ऋतु के अनुरूप, उस दिन के कार्य विशेष को ध्यान में रखते हुए, उस दिन जिन विशिष्ट पुरुषों से मिलना है उसके लिए उचित वस्त्र एवं आभूषण धारण किये जाते हैं।[1] श्रीकृष्णचन्द्र के अपने वस्त्र-आभरण, उनके चिद्द्यन वपु का सामीप्य जिनको जन्म-जन्म की साधना से सुलभ होता है, उनको कृतार्थ करना था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राचीन भारत में ऋतु, उत्सव, दिन, पर्व के अनुरूप तो वस्त्र तथा आभूषण होते ही थे, शान्ति, युद्ध, शोक, रोष, स्नेह, सम्मान के सूचक भी होते थे और इनका ध्यान रखकर आभूषण, उत्तरीय, उष्णीष धारण किया जाता था।
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