श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. अग्रजानयन
'कृष्ण! तुम योगेश्वरेश्वर हो। परम पुरुष हो और ये राम भी सनातन जगत्कारण कारण हैं। यह सम्पूर्ण व्यक्त प्रपन्च अपने आप से प्रकट करके इसमें बिना प्रविष्ट हुए ही प्रविष्ट की भाँति तुम प्रतीत हो रहे हो। तुम्हीं प्राण हो, तुम्हीं विश्वस्रष्टाओं की शक्ति हो, तुम्हीं भूमि में गन्ध एवं स्थैर्य, जल में रस, अग्नि से तेज, वायु में गति तथा आकाश में शब्द हो। तुम्हीं प्रणव हो, तुम्हीं सर्वरूप, सर्वाधार, सर्वमय और सर्वातीत हो। इन सब विकारी नश्वर भावों में तुम निर्विकार अविनाशी हो। सत्त्व, रज, तम ये गुण और इनकी सब वृत्तियाँ तुम परम ब्रह्म में माया से कल्पित हैं। इस गुण प्रवाह रूप जगत में अज्ञानी लोग तुम अखिलात्मा की सूक्ष्मगति को न जानने के कारण कर्मचक्र में पड़े जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते हैं। तुम सर्वेश्वरेश्वर हो। तुम्हारी माया से मोहित होकर अपने परम स्वार्थ की ओर से प्रमत्त रहते मेरी इतनी आयु व्यर्थ बीत गयी। वह भी मैं हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार शरीर और शरीर सम्बन्धियों के स्नेहपाश में तुमने ही पूरे जगत को बाँध रखा है। तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, प्रधान और पुरुष हो। भू-भार दूर करने के लिए अवतीर्ण हुए हो, यह तुमने स्वयं प्रसूति-गृह में कहा था। अतः अब इन इन्द्रियों की तृप्ति से बस! तुम परम पुरुष में मैं भ्रमवश पुत्रबुद्धि करता रहा। इस भव-भय के विनाशक आर्तबन्धु आपके पादारविन्द की मैं शरण हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने बड़े भाई की ओर देखा और हँसकर बोले- 'पिताजी! आपका वह अनुग्रह है कि हम पुत्रों को लक्ष्य करके आपने इस प्रकार तत्त्वज्ञान का उपदेश किया है। मैं, आप, ये मेरे अग्रज, सब द्वारिका वासी और सभी चर-अचर एक ही परमतत्त्व में प्रतीत हो रहे हैं। सबके रूप में परमात्मा ही है, यही भाव अन्तःकरण में स्थिर रहे, आपके उपदेश का यह तात्पर्य मैंने समझा है।' 'श्रीकृष्ण का हास्य ही माया है' वसुदेव जी की बुद्धि में प्रकाश हुआ- 'एक अद्वय तत्त्व ही जब है तो उसमें मैं और तुम क्या?' नानात्वबुद्धि निवृत्त हो गयी। वे चुप हो गये। लेकिन कभी-कभी ऐसा संयोग होता है कि एक से कार्य ही बनते रहते हैं। यह दिन ही बड़ों से स्तुति-श्रवण का था। वसुदेव जी चुप हुए तो माता देवकी स्तुति करने लगीं। ग्रहण के मेले में बहुत नारियाँ मिली थीं। महर्षि सान्दीपनि सपत्नीक पधारे थे। मथुरा में भी सुना था और वहाँ तो महर्षि की पत्नी ने दिखलाया- 'मेरा यह पुत्र समुद्र में डूबकर मर गया था। इसे राम-श्याम गुरुदक्षिणा के रूप में यमलोक से लाकर दे गये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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