श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
42. पति-दान
'मैं आज ही निर्णय कर लूँगी।' सत्यभामा जी ने देवर्षि का सत्कार करके विदा किया और रात्रि में अपने आराध्य से पूछा- 'तुम कहते तो हो कि मैं तुम्हारा ही हूँ किन्तु.......।' 'इसमें किन्तु परन्तु क्या?' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा। 'मैं तुम्हारा दान करूँ- स्वीकार कर लोगे?' 'करके देख ही क्यों नहीं लेती हो।' श्रीद्वारिकाधीश अब बात समझ गये- तुम कल्पवृक्ष ले भी तो आयी हो इसी अभिप्राय से।' 'उसे कल यहाँ मँगा दो।' देवी सत्यभामा ने अब अपनी योजना सुना दी। देवर्षि नारद पधारे। महारानी ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया, उनको भोजन करवाया। अब उनके सम्मुख श्रीकृष्णचन्द्र से तथा सभी उनकी रानियों से अनुमति ली। सबने सहर्ष अनुमति दे दी। श्रीद्वारिकाधीश के कण्ठ में पुष्पमाला डाली और उन्हें कल्पवृक्ष से बाँध दिया। कल्पवृक्ष इतना छोटा हो गया कि कहना यह उचित है कि उस नन्हें से पारिजात के पौधे को श्रीकृष्ण के चरणों से बाँध दिया गया। 'इमं स्वपर्तिं नारदाय ब्रह्मपुत्राय प्रददे।' सत्यभामा जी ने हाथ में जल लेकर सम्पूर्ण संकल्प पढ़कर श्रीकृष्णचन्द्र का दान कर दिया। सहस्र धेनु तथा विपुल स्वर्ण राशि इस दान की सांगता के लिए प्रदान की देवर्षि को। सुर गगन से पुष्पवर्षा कर रहे थे। जय-ध्वनि, वाद्य-ध्वनि तथा शंखनाद से दिशायें गूँज रहीं थीं। कोलाहल शान्त होने पर देवर्षि आसन से उठे और अपनी वीणा उठाकर शान्त स्वर में श्रीकृष्णचन्द्र से बोले- 'केशव! महारानी सत्यभामा ने आपको मुझे दे दिया है। आप मेरे हो गये। अतः मेरे पीछे आइये और मैं जो आज्ञा दूँ, उसका पालन करते रहिये।' 'यही मुख्य पक्ष है।' श्रीकृष्णचन्द्र सविनय उठ खड़े हुए और देवर्षि के पीछे चल पड़े। 'देवि! मैं विरक्त हूँ। आप देखती ही हैं कि आपने जो धेनुएँ और स्वर्णराशि दान की हैं मुझे, वह भी मैंने औरों को दे दी।' देवर्षि ने गम्भीर होकर कहा- 'सृष्टि में जितना धन, वैभव है उसे देने में समर्थ पारिजात तरु आपने मुझे दान किया है। मैं उसे आपको लौटाता हूँ। आप इसे मेरा प्रसाद मानकर ग्रहण करें किन्तु जन्म-जन्म की साधना से भी जो नहीं मिलते उन श्रीकृष्ण को पाकर उन्हें दिया कैसे जा सकता है।' अब सत्यभामा जी व्याकुल हुई। पूरे समाज में खलबली मची। अब तक तो सबने इसे एक औपचारिक कर्म माना था। किन्तु अब बात ने बहुत अद्भुत रूप धारण कर लिया। 'आपने ही कहा था कि भगवती उमा ने अपने स्वामी को इसी प्रकार आपको दान किया था।' सत्यभामा जी ने देवर्षि से कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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