श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. श्रीबलराम की तीर्थयात्रा
अभिमन्यु के विवाह के समय श्रीबलराम विराट नगर गये और वहाँ से लौटे तो उनका चित्त बहुत खिन्न था। सात्यकि ने वहाँ पांडव पक्ष के नरेशों की सभा में ही कहा था- 'आपको तो अपने शिष्य दुर्योधन का पक्षपात है। आप उसके दोष भी दूसरों के सिर डालना चाहते हैं।' सात्यकि की बात सर्वथा निराधार तो नहीं थी। श्रीकृष्ण ने सात्यकि का खण्डन नहीं किया था किन्तु श्रीसंकर्षण क्या करें। वे जीवों के परमाचार्य हैं। उनके स्वभाव में ही कृपा है। उन्हें लगता है कि जो शिशु जितना दुर्बल है वह उनकी कृपा का उतना ही अधिक पात्र है। उन्हें किसी के दोष-दुर्गुण कहाँ दीखते हैं। यह तो जीव की दुर्बलता है। पाण्डु पुत्र धर्मात्मा हैं। इन्हें धर्म का बल तथा श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त है। दुर्योधन अपने अहंकार के कारण बहुत दुर्बल है। उसे कृपा मिलनी चाहिए, किन्तु बहिन सुभद्रा? अब युद्ध अनिवार्य है। दुर्योधन तो सहायता की याचना ही करने आ गया था। युद्ध से पूर्व पता नहीं कितनी मन्त्रणा सभा होंगी और उनमें सम्मिलित न हुआ जाय अथवा मौन रहा जाय, ऐसा संभव नहीं है। अब सभी पराक्रमी नरेश पांडव अथवा कौरव पक्ष में युद्ध में सम्मिलित होने के लिए सैन्य-सज्जा में लगे हैं। अन्यत्र कहीं कोई आक्रमण करे- कोई छोटा युद्ध भी हो इसकी संभावना नहीं है। द्वारिका के लिए किसी भय की आशंका नहीं। अतः विराट नगर से लौटते ही श्रीसंकर्षण ने घोषणा कर दी कि वे तीर्थयात्रा करने जायेंगे। उत्तम मुहूर्त में तीर्थयात्रा के नियम स्वीकार करके पत्नी के साथ उन्होंने रथ के द्वारा प्रस्थान किया और प्रभास पहुँचे। ब्रह्मचर्य का पालन तो तीर्थयात्री के लिए अनिवार्य ही है। द्विदल, मधु, तैल का यात्री सर्वथा त्याग कर देता है। आभूषण, अंगराग, तैलाभ्यंग, पुष्पमाल्य धारण, संगीत-नृत्यादि दर्शन भी छूट जाते हैं। हविष्यान्न का एक समय भोजन, जप, देवदर्शन-पूजन, संत-दर्शन, तीर्थ-स्नान, तर्पण, दान यही मुख्य कर्म होते हैं उसके। प्रत्येक तीर्थ में पहुँचकर पहिले दिन वह उपवास करता है और दूसरे दिन तीर्थ-कर्म सम्पन्न करके तब आहार-प्रमाद ग्रहण करता है। पत्नी के साथ श्रीबलराम जी ने सभी नियम स्वीकार कर लिये थे। उत्तरीय के स्थान पर उन्होंने मृगचर्म धारण कर लिया था। किसी को अपराध करने पर भी दण्ड न देना, कठोर वचन न कहना, दुःखी की सहायता करना- यह तो यात्री का कर्तव्य ही है। उन अनन्त ने आयुध त्याग दिया था और हाथ में कुश-दण्ड रखने का नियम कर लिया था। यह प्रतीक था कि वे अपराधी को भी दण्ड नहीं देंगे। सभी तीर्थों में तीर्थ-पुरोहितों की परंपरा प्राचीनकाल से है। संपन्न यात्री दान का संकल्प करता है और तीर्थ-पुरोहित वे पदार्थ यजमान को दान के लिए देते हैं। पीछे सुविधानुसार पदार्थ अथवा उनका मूल्य वे स्वयं यजमान के यहाँ से मँगा लेते हैं। तीर्थयात्री के निवास, आहार, तीर्थ-दर्शन, स्नानादि की वे सब व्यवस्था करते हैं। सामान्य यात्री को भी यह व्यवस्था प्राप्त होती है, श्रीबलराम जी के लिए तो सर्वत्र सुलभ थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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