श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. प्रद्युम्न-परिणय
पराक्रम आशंकित होना नहीं जानता। प्रद्युम्न को पता लगा कि भोजकटपुर में उनके मामा रुक्मी की कन्या रुक्मवती का स्वयंवर है तो वे द्वारिका में बिना किसी से कुछ कहे अकेले ही अपने रथ से चल पड़े। रुक्मी के शत्रुता थी श्रीद्वारिकाधीश से और इस शत्रुता के कारण ही पैतृक राजधानी कुण्डिनपुर का परित्याग करके वह भोजकटपुर में बस गया था। उसे रुक्मिणी हरण के समय जो अपमान भोगना पड़ा- श्रीकृष्ण ने दाढ़ी-मूँछ-केश तलवार से काटकर उसे कुरूप बनाकर छोड़ दिया- इसे वह भूला नहीं था। उसकी शत्रुता प्रसिद्ध थी; किंतु द्वारिका पर चढ़ायी करने की भूल उसने नहीं की। श्रीकृष्ण से युद्ध करके आने वाले परिणाम को भोग चुका था; किन्तु वह प्रतीक्षा करता रहा था कि कोई अवसर मिले- द्वारिकाधीश किसी संकट में पड़े तो वह चढ़ दौड़े। ऐसा कोई अवसर उसे नहीं मिला। संकट और श्रीकृष्ण पर? श्रीकृष्ण के स्मरण से संकट कट जाया करते रहे हैं। रुक्मी शत्रु था और पराक्रमी था। दिव्यास्त्र ज्ञाता था। भले उसका दिव्यरथ, अभेद्य, धनुष-कवच श्रीकृष्ण-चन्द्र ने नष्ट कर दिया था, वह किसी भी सामान्य शूर के लिए दुर्जय था; किन्तु युवक-रक्त भय, आशंका नहीं देखा करता। प्रद्युम्न अकेले भोजकटपुर पहुँच गये। रुक्मी बहुत प्रसन्न हुआ। प्रद्युम्न की आशा के विपरीत उनका स्वागत किया रुक्मी ने और उन्हें राजभवन में बड़े स्नेह से आवास दिया। उसने उलाहना दिया- 'तुमको अकेले भेज दिया उन लोगों ने?' 'बहिन प्रसन्न है?' रुक्मी का बहुत अधिक स्नेह था अपनी बहिन पर। पाँच भाईयों में एक बहिन और रुक्मी को तो वह सदा अबोध बच्ची लगी। उस बहिन ने प्राण बचाये थे। भाई के प्रेमवश वह सम्पूर्ण लज्जा-संकोच त्यागकर उस दिन रथ से कूदकर दौड़ी थी और क्रोध में भरे तलवार उठाये रुक्मी-वध को उद्यत श्रीकृष्ण के पैर पकड़ लिये थे उसने। रुक्मी को बहिन की वह कातरता, वह व्याकुलता कभी नहीं भूली। उस दिन वह न बचाती, श्रीकृष्ण ने मार ही दिया होता उसे। जीवन-दान देने वाली उसकी बहिन और दुर्दैव ने उसी से संबंध भंग कर दिया। द्वारिका वह जा नहीं सकता था- इतने अपमान के पश्चात कैसे जाता द्वारिका, और द्वारिका में उसे स्मरण करने वाली केवल उसकी बहिन थी। अन्तःपुर में विवशा- वह भाई की चर्चा भी करे तो पति तिरस्कृता हो। परपक्ष की मानी जाय। रुक्मी बहुत दुःखी- बहुत खिन्न रहा है इस स्थिति से। प्रद्युम्न आये तो रुक्मी सम्पूर्ण स्नेह उमड़ पड़ा। वे उसकी अत्यन्त वात्सल्य-भाजना बहिन के पुत्र थे। द्वारिका से तनिक भी संबंध बना होता, वह अपनी कन्या का स्वयंवर ही नहीं करता। उसे आशा कहाँ थी कि वह ऐसा कोई प्रस्ताव द्वारिका भेजे तो उसे अपमानित नहीं होना पड़ेगा। उसने तो स्वयंवर की सूचना भी द्वारिका नहीं भेजी। 'बहिन कभी इस भाई को भी स्मरण करती है?' रुक्मी को केवल बहिन की रट लगी थी। बहिन के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था और प्रद्युम्न उसे उचित उत्तर दे रहे थे। प्रद्युम्न को कल्पना भी नहीं थी कि ये मामा इतने वात्सल्यमय होंगे। उन्होंने तो रुक्मी को उग्र, रूक्ष, अभिमानी आदि के रूप में ही कल्पित किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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