श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. ऋषिगणागमन
भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, शिष्यों के साथ भगवान परशुराम, वशिष्ठ जी, गालव, महर्षि भृगु, पुलस्त्य, प्रजापति कश्यप, अंगिरा, अत्रि, मार्कण्डेय, देवगुरु, वृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनकादिकुमार, अगस्त्य, वामदेव, प्रभृति सभी ऋषि, महर्षि, देवर्षि, काण्डर्षि आये। वस्तुतः भगवान वेदव्यास तथा देवर्षि नारद तो कई बार आ चुके थे इस शिविर में। इन दोनों को साथ लेकर दूसरे सब महर्षिगण आये थे। महर्षियों को देखते ही महाराज उग्रसेन, पांडव, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य आदि सभी उठ खड़े हुए। श्रीबलराम श्रीकृष्ण के साथ सबने भूमि में पड़कर प्रणिपात किया। श्रीकृष्ण ने सबको आसन दिया। महर्षिगणों को कहीं किसी की ओर देखना नहीं था। वे ऐसे देख और व्यवहार कर रहे थे जैसे वहाँ श्रीबलराम-कृष्ण को छोड़कर दूसरा कोई हो ही नहीं। वस्तुतः ये सब महर्षि अब कुरुक्षेत्र से अपने-अपने आश्रम जाने से पूर्व श्रीकृष्ण से मिलने ही आये थे। भलीप्रकार दोनों भाइयों ने ऋषिगणों की पूजा की। 'आज हमारे देह धारण का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो गया। आप सबका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है, आपमें से कोई एक का भी दर्शन मनुष्य को परमपद देने वाला है, ऐसे आपने हमें दर्शन देकर कृतार्थ किया। 'श्रीकृष्णचन्द्र अंजलि बाँधकर साश्रुलोचन, पुलकित तन, गद्गद्वाणी स्तवन करने लगे- 'जलमय तीर्थ, शिलादि निर्मित अर्चाविग्रह बहुत काल में सेवा करने पर अर्चक को पवित्र कर पाते हैं, किन्तु भगवत्प्राण महापुरुषों की सेवा तो मुहूर्त मात्र में मानव को निष्कलुष कर देती है।' स्तुति करके श्रीकृष्णचन्द्र ने फिर साष्टाङ्ग प्रणिपात किया। 'ये निखिल ब्रह्माण्डनायक परमपुरुष कह क्या रहे हैं?' महर्षियों ने परस्पर देखा एक दूसरे की ओर- 'इनका स्मरण हम सबको परिपूत करता है और ये स्वयं।' 'जब ये धरा पर पधारे हैं तो लोकादर्श भी तो स्थापित करना है इन्हें।' इस 'जन-संग्रह' के अतिरिक्त भगवान वासुदेव की वाणी का दूसरा प्रयोजन भला क्या हो सकता था। 'तत्त्वज्ञों में श्रेष्ठतम माने जाने वाले हम सब भी जिनकी माया से विमोहित होते हैं, भगवान ब्रह्मा और शंकर जी भी जिनकी चेष्टा को समझ नहीं पाते, उन सर्वसमर्थ का यह शील धन्य है।' 'आप परमपुरुष, वर्णाश्रमात्मा, वेद आपका हृदय है। तप, स्वाध्याय, संयम आप अव्यक्त को व्यक्त करके प्राप्त कराने वाला है। अतः आप ब्रह्माण्य देवाग्रणी सद्धाम शास्त्रयोनि वेदज्ञ एवं ब्रह्मवेत्ताओं का समादर करते हैं।' महर्षियों की वाणी भी गद्गद हो रही थी- 'वस्तुतः जन्म तो आज हमारा सफल हुआ, सफल हुई हमारी विद्या, तपस्यादि साधना और कृतार्थ हुए हमारे नेत्र आपके समीप आकर। सद्गति एवं परम कल्याण स्वरूप आपको हमने देखा। आप परमात्मा, अकुण्ड बोध भगवान को हमारी प्रणति।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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