श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. साम्ब की सूर्योपासना
अभिमान सबसे बड़ा अवगुण है क्योंकि वह व्यक्ति के विवेक को आच्छादित कर लेता है और तब उससे मर्यादा का अतिक्रमण होता है। बड़ों का अपमान होता है। साम्ब अतिशय सुन्दर थे। उन्हें अपने इस सौन्दर्य का बहुत गर्व था। शरीर के सौन्दर्य का गर्व- इसका अर्थ भी क्या है, किन्तु युवावस्था के उन्माद में व्यक्ति इसे कहाँ समझ पाता है। इसलिए सत्पुरुष वार्धक्य को भगवान का वरदान मानते हैं क्योंकि तब शरीर के सौन्दर्य-बल का गर्व नष्ट हो जाता है। इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। यदि विवेक जागृत हो तो मनुष्य देहासक्ति एवं विकारों से परित्राण पाकर अन्तर्मुख हो जाता है। द्वारिका में जरा, मृत्यु, रोग, क्लान्ति, श्रान्ति का प्रवेश नहीं था क्योंकि पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ विराजमान थे और सुरपादप कल्पवृक्ष वहाँ आरोपित था। इस अलौकिक सुविधा ने लाभ से वंचित भी किया था सबको। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था, साम्ब का कैसे जाता किन्तु श्रीहरि के अपने जनों में अपने ही पुत्रों में शरीर का अभिमान- यह अभिनिदेश सर्वथा असङ्गत था। उसे दूर तो होना ही चाहिए था। गर्व मर्यादा का अतिक्रमण कराता है। साम्ब अपने शरीर के प्रदर्शन का कोई अवसर खोना नहीं चाहते थे। वे अनवसर भी व्यायाम, स्नान आदि का कोई-न-कोई बहाना बनाकर सार्वजनिक स्थानों पर वस्त्राभरण उतार देते थे और केवल कच्छ[1] में अपने सुगठित सिन्दूरारुण शरीर को दिखलाना चाहते थे। रैवतक गिरि पर श्रीकृष्णचन्द्र अपनी महारानियों के साथ स्नान कर रहे थे। जलक्रीड़ा चल रही थी। वहाँ केवल दासियाँ थीं रानियों की किन्तु वे श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार को ही कैसे रोकतीं। साम्ब अकेले वहाँ पहुँच गये और स्नान का बहाना बनाकर उन्होंने वस्त्र उतार दिये। यह ठीक है कि पुत्र को माता-पिता के सामने कभी भी जाने का अधिकार है और उसे कोई संकोच वहाँ नहीं होता, किन्तु पुत्र भी जब युवा हो जाता है तब उसे माता के सम्मुख जाने एवं व्यवहार करने में मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक है। पिता-माता एकान्त में हों, स्नान करते हों तो वहाँ युवा-पुत्र का पहुँच जाना सर्वथा ही अनुचित है। साम्ब के पहुँचने से रानियों को संकोच होना ही था। वे साम्ब की ओर देखने लगीं। सब उनके सुन्दर शरीर को आकृष्ट होकर देखते हैं, यह साम्ब को मानसिक तृप्ति देने वाला था, वे स्मरण ही नहीं कर पाते थे कि इसमें कुछ अनौचित्य भी है। 'तुझे अपने शरीर की सुन्दरता का गर्व हो गया है।' श्रीकृष्ण ने रोष भरे स्वर में कहा- 'श्वित्र तेरे इस गर्व को नष्ट कर देगा।' रानियों ने, साम्ब ने भी देखा कि उनके शरीर पर श्वेतकुष्ट के चकत्ते स्थान-स्थान पर उभर आये हैं। शीघ्रतापूर्वक साम्ब ने वस्त्र लपेटा और भाग खड़े हुए। जलक्रीड़ा समाप्त हो गयी। रानियों ने वस्त्र पहिने। सब रैवतक से राज-सदन आ गयीं किन्तु किसी का साहस श्रीकृष्णचन्द्र से कुछ कहने का नहीं हुआ। उनका रोष भरा मुख, साम्ब को ही शाप दे दिया तो बोलकर विपत्ति बुलाने का साहस कौन करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्तर्वास
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