श्री द्वारिकाधीश-सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. देवर्षि का कुतूहल
श्रीकृष्णचन्द्र ने भौमासुर को मारकर उसके यहाँ से लायी 16,100 कन्याओं से विवाह कर लिया। आठ पटरानियाँ पहिले ही उनके थीं। इतनी अधिक पत्नियों को वे कैसे संतुष्ट रखते होंगे? कैसे उनके साथ व्यवहार करते होंगे? यह कुतूहल जागा देवर्षि के मन में। किसी सामान्य व्यक्ति के गार्हस्थ्य का चिन्तन तो नहीं था कि इसे काम-चिन्तन का अंग कहकर त्याज्य कहा जाय। श्रीकृष्ण की लीला का चिन्तन तो मानस के मल को मिटाने वाला है किन्तु चिन्तन तो तब हो जब लीला समझ में आवे। यह लीला क्या है कि अकेले रहते इतने विवाह कर लिये और पत्नियों में विवाद नहीं होता? देवर्षि नारद को वैसे भी घूम-फिर कर द्वारिका में ही आते रहना प्रिय हो गया था। जो बिना प्रयोजन ही बना रहता हो। उसे कोई भी बहाना चाहिए और देवर्षि का तो त्रिभुवन में सर्वत्र अबाध विचरण हैं। श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तःपुर में तो सदा उनके स्वागत के लिए खुले हैं। वहाँ जाने में क्या संकोच। नारद जी मन में आते ही द्वारिका पहुँचे और महारानी रुक्मिणी के भवन में प्रविष्ट हुए। दूर से ही देखा कि श्रीद्वारिकाधीश पर्यङ्क पर विराजमान हैं और सेविकाओं से घिरी महारानी स्वयं रत्नदण्ड-लघु व्यजन[1] अपने कर में लिये अपने स्वामी को वायु कर रही हैं। देवर्षि को देखते ही श्रीकृष्णचन्द्र सत्त्वर उठे। दण्डवत प्रणिपात किया। लाकर उन्हें अपने उसी पर्यङ्क पर बैठा दिया। चरण धोये, विधिपूर्वक पूजा की और नम्रता-पूर्वक हाथ जोड़कर बोले- 'आप पूर्णकाम ने बड़ा अनुग्रह किया। मैं क्या सेवा करूँ?' 'इतनी ही कृपा कीजिये कि आपके इन श्रीचरणों की स्मृति बनी रहे।' नारद जी ने कहा- 'इन पाद-पद्मों का चिन्तन करते हुए ही मैं विचरण करता रहूँ।' वहाँ से उठे तो सत्यभामा जी के भवन में पहुँच गये किन्तु वहाँ महारानी सत्यभामा के साथ बैठे श्रीकृष्ण उद्धव को बैठाये थे और तीनों अक्षक्रीड़ा[2] में लगे थे। वहाँ भी देवर्षि का पूजन संविधि हुआ। देवर्षि की समझ में कोई बात नहीं आयी। वे अभी श्रीकृष्णचन्द्र को रुक्मिणी जी के भवन में छोड़ आये हैं और यहाँ तो पासा ऐसा जमा था जैसे बहुत देर से यह खेल चल रहा हो। अब दूसरे भवनों में इस स्वागत-सत्कार, अर्चा-पूजा से बचना था क्योंकि ऐसे पूजा चलेगी प्रत्येक भवन में तो सायंकाल तक चार छः सदन ही देखे जा सकेंगे और सबसे बड़ी कठिनाई यह कि जहाँ पूजा होगी वहाँ कुछ न कुछ भोजन भी करना ही पड़ेगा। दो महारानियों ने खिला दिया। सत्यभामा जी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी- 'आप आज इतना अल्पहार क्यों ग्रहण कर रहे हैं? मुझसे कोई अपराध हुआ है? नैवेद्य दूषित है या स्वादहीन है? यह प्रिय नहीं तो और क्या प्रस्तुत करूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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