श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. नृगोद्धार
वैवस्वत मनु के पुत्र महाराज इक्ष्वाकु के पुत्र थे नृग। वे नरेश हुए तो उनको लगा कि देश में कहीं कोई भी विद्वान, सदाचारी ब्राह्मण दरिद्र नहीं रहना चाहिए। उन्होंने सम्पूर्ण देश में पूरी पृथ्वी में पता लगाने का प्रबन्ध किया। जहाँ कहीं भी तपस्वी, वेदज्ञ, सदाचारी गृहस्थ ब्राह्मण आर्थिक कष्ट भोगते मिले वे युवा ही मिले क्योंकि बालक गुरुकुलों में होते थे और प्रौढ़ वानप्रस्थ स्वीकार करके वन में चले जाते थे, उन विप्रों को महाराज नृग ने सादर आमन्त्रित किया। अपने यहाँ पहुँचने और वहाँ से घर लौटने की व्यवस्था की। ऐसे ब्राह्मणों को महाराज नृग गोदान करते थे। एक-एक ब्राह्मण को शतशः गोदान सवत्सा, तरुणी, दूध देने वाली, देखने में सुन्दर सीधी, गुणवान प्रायः कपिला गायों का दान करते थे। गायों के खुर चाँदी से तथा सींग स्वर्ण से मढ़वाकर उन्हें मोतियों की माला पहिनाकर और कौशेय वस्त्र से ढककर दान करते थे। ब्राह्मणों को भली प्रकार वस्त्राभूषण से अलंकृत करके, भोजन करवाके, उनकी पूजा करके गोदान करते थे उन्हें और गोदान के साथ स्वर्ण, भूमि, भवन, घोड़े, हाथी, अन्न, वस्त्र, गृह के शैय्यादि उपकरण, रत्न, तिल, रथ- जो भी ब्राह्मण को अभीष्ट होता था ब्राह्मणों को वह सब-सेवक, सेविकाएँ तक दान करते थे। जो युवक ब्राह्मण गुरुकुल में समावर्तन संस्कार करके लौटते थे, उनका विवाह सुयोग्य कन्या से कर देते थे और उस कन्या को अपनी कन्या के समान मानकर उसी उत्साह से उसी प्रकार धन देकर विवाह करते थे। उस नवीन दम्पत्ति को जहाँ अभीष्ट होता वहाँ पर्याप्त भूमि तथा भवन बनवाकर भवन की सब सामग्री, वाहनादि के साथ देते थे। संसार में महाराज नृग के समान दानशील नरेश दस-बीस नहीं हुए हैं। महाराज नृग ने इसकी पूरी सावधानी रखी कि दान न्यायार्जित सम्पत्ति का ही किया जाय। नृग के दान का मुख्य भाग था गोदान। अतः स्वाभाविक था कि नृग ने गोपालन की बहुत बड़ी व्यवस्था कर रखी थी। लाखों गायें उन्होंने राज्य में स्थान-स्थान पर पालने की व्यवस्था की थी। उनमें-से सवत्सा, तरुणी, दूध देने वाली गायें दान कर दी जाती थीं। राज्य की पर्याप्त अधिक भूमि ब्राह्मणों को दान की जा चुकी थी। ब्राह्मणों के समीप आश्रम की पर्याप्त भूमि थी। रथ, अश्व, गज, सेवक, सेविकाएँ और उत्तम भवन हो गये थे। लेकिन कर्म तो कोई निर्दोष हुआ नहीं करता। नृग की इस दानशीलता का दूसरा पक्ष था कि विद्वान सदाचारी ब्राह्मण सद्गुणी तो थे किन्तु तपस्वी, अपरिग्रही नहीं रह गये थे और जो संतोषी थे उन्होंने और किसी से दान लेना स्वीकार कर दिया था। अतः दूसरे किसी को भी उत्तम सत्पात्र दान के लिए मिलना दुर्लभ हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज