श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
'छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च।'[1] 'इस लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण वैदिक मन्त्र एवं वैदिक ज्ञान तत्काल पढ़े के समान तुमको स्मरण रहें।' गुरुदेव का यह आशीर्वाद श्रीकृष्ण के संग का सद्यः फल मिल गया था उसी दिन सुदामा को वे उसी दिन वेदज्ञों के शिरोमणि हो गये थे। समावर्तन संस्कार हुआ और स्वदेश लौटे। ब्राह्मण का धन विद्या है। सुदामा के माता-पिता संतुष्ट हुए पुत्र के विद्वान होकर लौटने से। विद्वान ब्राह्मण-कुमार का श्रेष्ठ ब्राह्मण-कन्या से विवाह हो गया। माता-पिता जैसे वीतराग तपस्वी थे, सुदामा में वह त्याग एवं अपरिग्रह और उत्कृष्ट, अधिक परिपूर्णता को प्राप्त हुआ। पिता-माता के परलोक जाने पर भी उनकी तृण कुटीर तपः साधना एवं श्रुति के सस्वर पाठ से सदा पवित्र रही। गुर्जर शरीर, नागर ब्राह्मण सुदामा गुरुकुल से लौटे तो श्रुतिःशास्त्र पारंगत होने के साथ श्रीकृष्ण के सख्य में आपाद निमग्न। अपने नित्यकर्म, वेद-पाठ, हवनादि के अतिरिक्त उस घनश्याम सखा के चिन्तन, मनन और गुणगान में निमग्न। शरीर का बहुत कम स्मरण रहता था। तो गार्हस्थ की सुधि कैसी। 'वे नवघन सुन्दर मुझे बहुत सम्मान देते थे। सहपाठियों में सबसे अधिक स्नेह था उनका मुझ पर।' सुदामा गदगद कण्ठ कहते थे पत्नी से- 'श्रुति उन्हीं का निःश्वास है। उन्हें अध्ययन कहाँ करना था। उन दोनों भाइयों को केवल मर्यादा रक्षा करनी थी। वे सर्वलोकेश्वरेश्वर......।' सखा के सौन्दर्य, शील, गुण और अकल्पनीय प्रतिभा, अतिशय विनम्रता और सेवा-परायणता का वर्णन प्रारम्भ हो जाता तो रात्रि कब बीत गयी, पता ही नहीं लगता था। सुदामा की कम ही रात्रियाँ थीं जो उन्हें निद्रा का विश्राम दे पाती थीं। उनकी रात्रियाँ प्रायः पत्नी के साथ इस पुनीत चर्चा में व्यतीत होती थीं। पत्नी सत्या, सुशीला, तपस्विनी, पतिव्रता और तितिक्षु, त्यागी, अपरिग्रही ब्राह्मण की कन्या। उसे त्याग, सेवा, कष्ट सहन की शिक्षा शैशव से ही मिली थी। ब्राह्ममहूर्त से रात्रि के प्रथम प्रहर तक वह जुटी रहती थी। कुटिया की स्वच्छता, भूमिलेपन, जल भरना सूखी लकड़ियाँ एकत्र करना, पति की पूजा के लिए कुश, तुलसी, दूर्वा, पुष्प जुटाना आदि भी उसे ही करना था। तुलसी पुष्प के पौधों की सेवा-सिंचन भी। वही भिक्षा भी माँग लाती थी अथवा शाक पत्र जो मिल जाता, एकत्र कर लेती थी। उसे अपने सुख, अपनी सुविधा कभी सूझती नहीं थी। दिन में एक बार ही उसके स्वामी कुछ आहार लेते थे। वह भी अलोना है या नमक पड़ा है, यह देखते नहीं थे। महीने में कई-कई व्रत के दिन थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10. 45. 48 एवं 10. 80. 42
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