श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. रण-निमन्त्रण
'आपको स्वयं द्वारिका जाना चाहिए।' कर्ण और शकुनि ने दुर्योधन को समझाया- 'यद्यपि यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में हैं, किन्तु वे आपके भी संबंधी हैं। यदि आप पांडवों से प्रथम उन्हें युद्ध में सहायता करने को आमंत्रित करने पहुँच जाते हैं तो आपको अस्वीकार कर देना उनके लिए कठिन होगा।' 'चक्रधर श्रीकृष्ण से युद्ध करके विजय की आशा नहीं की जा सकती।' कर्ण ने यह बात कभी छिपाई नहीं। 'राजन! मैं युद्ध तो करूँगा, किन्तु मेरे पास श्रीकृष्ण के वेग को अथवा उनके चक्र को कुछ क्षण भी रोक सके, ऐसा कोई दिव्यास्त्र नहीं है।' 'भगवान संकर्षण का अनुग्रह प्राप्त है आपको।' दुर्योधन को भी दूसरा मार्ग नहीं दीख रहा था। उसने रथ सजवाया और अपनी पुत्री, जामाता साम्ब एवं महाराज उग्रसेन, वसुदेव आदि सबके लिए उपहार सामग्री लेकर द्वारिका पहुँचा। उसे उसके मित्रों ने समझा दिया था कि पहले उसे सीधे श्रीकृष्ण से मिलना चाहिए। पांडवों में कोई पहुँचे, इससे पहिले पहुँच जाना चाहिए। पांडवों की गतिविधि का पूरा पता रखने के लिए दुर्योधन ने चर नियुक्त कर रखे थे। उसे यह समाचार मिल गया कि अर्जुन द्वारिका के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। अतः दुर्योधन ने शीघ्रता की।[1] दुर्योधन ने उपहार सामग्री भिजवा दी महाराज उग्रसेन तथा वसुदेव जी के समीप। वह स्वयं अकेले महारानी रुक्मिणी के भवन में पहुँचा। सेवक, द्वारपाल आदि सबने स्वागत सहित प्रणाम किया। महारानी उसे आते देख कक्ष से चली गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र मध्याह्न भोजन करके विश्राम कर रहे थे। दुर्योधन गया और शैय्या के सिरहाने की ओर स्वर्ण-सिंहासन पर बैठ गया। यह सिंहासन उसके लिए महारानी ने भिजवाया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रण-निमंत्रण देने दुर्योधन स्वयं या पांडवों में-से कोई और कहीं नहीं गया। दोनों पक्षों ने दूसरे समर्थकों के पास केवल दूत भेजे।
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