श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. बहिन-विदा
'अभिमन्यु का विवाह पांडव अपने स्वतंत्र शिविर से करेंगे और तुम उस शिविर को सम्राट युधिष्ठिर के अनुरूप सज्जित कर दोगे।' श्रीसंकर्षण ने छोटे भाई को बहिन को विदा करते समय आदेश दिया- 'महाराज विराट पर दोनों ओर की व्यवस्था का भार डालना उचित नहीं है।' 'मैं आर्य की आज्ञा का ध्यान रखूँगा।' 'भैया! तुम्हारी यह बहिन एक ही वरदान चाहती हैं' सुभद्रा ने बड़े भाई से पहिली बार जीवन में अनुरोध किया- "तुम दोनों इसको अपने से दूर मत करना।" 'तू सदा हमारे समक्ष रहेगी।' श्रीकृष्णचन्द्र की ओर देखते हुए श्रीबलराम ने स्वीकार कर लिया। कलियुग में दारु-विग्रह श्रीजगन्नाथ के साथ बहिन के बने रहने की यह भूमिका बन गई। माता रोहिणी, देवकी जी, श्रीकृष्णचन्द्र की सब महारानियाँ, श्रीरेवती जी एवं प्रद्युम्नादि की पत्नियाँ- सबकी अत्यन्त प्रिय सुभद्रा, सबका स्नेहभाजन अभिमन्यु बहुत ही दुःखद होता है स्वजनों से वियुक्त होना किन्तु सुभद्रा पति के समीप जा रही थी। अभिमन्यु विवाह के लिए विदा किया जा रहा था- हर्ष और विषाद का अद्भुत मिलन था हृदयों में। यादवकुमारों का मिलन-उत्साह वर्णन नहीं किया जा सकता। 'बहिन! मैं आज तुझे द्वारिका से बिना ठिकाना दिये पहुँचाने चल रहा हूँ' 'भैया! मेरा मंगल तुम्हारे करो में सदा सुरक्षित है, सुभद्रा ने यह विश्वास कभी नहीं खोया।' बहिन ने भाई के सम्मुख मस्तक झुका दिया। सुभद्रा और अभिमन्यु को श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने रथ में बैठाया। सात्यकि ने सुरक्षा के लिए साथ चलने वाली सेना का नायकत्व स्वयं लिया। उत्तम मुहूर्त में, स्वस्ति पाठ, शंखनाद, वाद्य ध्वनि, मंगलगान के तुमुल स्वर के साथ बहिन सुभद्रा विदा हुई और उसे लेकर श्रीद्वारिकाधीश के गरुड़ध्वज रथ ने विराट नगर की ओर प्रस्थान किया। दूर तक श्रीबलराम प्रद्युम्नादि पहुँचाकर लौटे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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