श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह चक्र पृ. 276

श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'

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81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश

देवर्षि नारद एक बार श्रीवसुदेव जी के भवन में पहुँचे तो उनको आसन देकर वसुदेव जी ने भली प्रकार उनकी पूजा की। पूजा के अनन्तर वसुदेव जी ने वद्धांजलि पूछा- 'आप हम जैसे गृहासक्त चित्त लोगों पर कृपा करके उनके उद्धार के लिए ही गृहस्थों के घर पधारते हैं। आप परम भागवताचार्य हैं, अतः मुझे उस भागवत धर्म का उपदेश करें जिसे श्रद्धापूर्वक श्रवण करने मात्र से मनुष्य समस्त भयों से परित्राण पा जाता है।'

देवर्षि नारद प्रसन्न हो गये। उनका सबसे प्रिय कार्य है भगवद गुणानुवाद। भक्ति भागवत धर्म का प्रचार करने का उन्होंने व्रत ले रखा है। उन्होंने वसुदेव जी के प्रश्न की प्रशंसा की- 'आपने उत्तम प्रश्न किया। भागवत धर्म सुनने, पढ़ने, ध्यान करने, आदर करने और अनुमोदन करने से भी तत्काल अधमतम पापियों को भी पवित्र कर देता है।'

'एक बार भगवान ऋषभदेव के नव-योगीश्वर पुत्र भ्रमण करते हुए मिथिला के प्रथम नरेश महाराज निमि के सत्र में अकस्मात पहुँच गये।' देवर्षि ने एक आख्यायिका सुनायी। इसका तात्पर्य यह था कि सत्य शाश्वत होता है वह परम्परा से प्राप्त हो श्रेयस्कर होता है। देवर्षि जिस भागवत धर्म का वर्णन करने वाले हैं, वह सनातन परम्परा प्राप्त हैं।

नवीन उद्भावना, मौलिकता केवल सत्य के प्रतिपादन की, समझाने की शैली में सम्भव है। तथ्य, सत्य नवीन नहीं हो सकता। वह तो नित्य है, सनातन है। यदि उसे मौलिक, नूतन कहा जाता है तो वह सत्य नहीं, कोई काल्पनिक तथ्य है और उसमें तथ्यत्व ही नहीं है।

महाराज निमि ने उन योग सिद्ध अमरकाय, पूर्ण काम, निरपेक्ष, परम भागवत योगीश्वरों को अभ्युत्थान, आसन, अर्भ्यादि देकर सत्कृत किया। उनकी अर्चा करके निमि बोले- 'आप सब तो साक्षात भगवान नारायण के पार्षद ही हैं और लोकों को पवित्र करने के लिए ही विचरण करते हैं। आप जैसे महापुरुषों का क्षणार्ध का संग भी मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी है। अतः मैं आपके द्वारा उस भागवत धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ जिसके अनुष्ठान से प्रसन्न श्रीहरि अपने शरणागत को अपने आपको भी प्रदान कर देते हैं।'

जिज्ञासु सच्चा हो, अधिकारी हो और श्रद्धापूर्वक, सत्कारपूर्वक प्रश्न करे तो तत्त्वज्ञ पुरुष को उसका समाधान करने में प्रसन्नता ही होती है। उत्तर वहाँ नहीं दिया जाता अथवा टाल दिया जाता है जहाँ अनाधिकारी प्रश्नकर्ता हो। उसमें श्रद्धा न हो, अनवसर पूछता हो अथवा परीक्षा के लिए, कुतर्क से, अन्यायपूर्वक प्रश्न करता हो।

महाराज निमि ने सत्कार करके श्रद्धापूर्वक पूछा था। वे ज्ञान-सत्र में ही बैठे थे। उचित अधिकारी थे। अतः कवि ने उनको बतलाया- 'इस संसार में श्रीहरि के चरणकमलों की उपासना ही संसार के असत विषयों के चिन्तन में लगे, उद्विग्न बुद्धि मनुष्य को सदा अभय एवं शान्ति देने वाली है।'

'भागवत धर्म का सार इतना ही है कि शरीर मन, वाणी तथा अन्य इन्द्रियों से जो कुछ भी किया जाय उस परमपुरुष श्रीनारायण को समर्पित कर दें। कर्म-फल अपनी ओर न लेकर परमात्मा को अर्पित करें।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्री द्वारिकाधीश
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. अपनी बात 1
2. उपक्रम 4
3. द्वारिका 8
4. रुक्मिणी विवाह 10
5. स्यमन्तक मणि 24
6. जाम्बवती-मंगल 30
7. सत्यभामा-परिणय 33
8. कलंक-मोचन 36
9. कालिन्दी-कल्याण 41
10. महारानी मित्रविन्दा 45
11. सत्या नाग्नजिती 48
12. भाग्यशालिनी भद्रा 52
13. सुलक्षणा-लक्ष्मणा 54
14. परिहास-प्रिय 57
15. सुभद्रा-हरण 61
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष 67
17. पिशाचोद्धार 74
18. तप-पुत्र प्राप्ति 78
19. प्रद्युम्नहरण-शम्बर-मरण 80
20. श्रीबलराम की ब्रजयात्रा 87
21. पौण्ड्रक वासुदेव 89
22. काशी दहन 93
23. शिवोपासना 96
24. श्रीसंकर्षण 98
25. प्रद्युम्न-परिणय 100
26. असुर-वज्रनाभ 103
27. वज्रनाभ-वध 107
28. भानुमती-हरण 110
29. परिजात-पुष्प 112
30. नरक-निधन 117
31. पारिजात-हरण 122
32. शक्र-संग्राम 124
33. शची-संतोष 129
34. षट्पुर-नाश 132
35. साम्ब-विवाह 136
36. सखा सुदामा 138
37. विश्वजित-यज्ञ 146
38. द्विविद-दलन 151
39. ग्रहण-यात्रा 153
40. व्रजजन-मिलन 156
41. प्रीति-प्रतिमा 159
42. पति-दान 161
43. ऋषिगणागमन 164
44. वसुदेवजी का यज्ञ 132
45. व्रजराज-विदा 168
46. अग्रजानयन 170
47. वंश-विस्तार 173
48. देवर्षि का कुतूहल 176
49. मिथिला-यात्रा 179
50. दिनचर्या 182
51. नृगोद्धार 186
52. राजसूय-यज्ञ की यात्रा 190
53. शाल्व-शमन 193
54. दन्तवक्र-विदूरथ-मरण 199
55. मान-भंग 201
56. प्रेम का आदर्श 203
57. अश्वमेध-यज्ञ 206
58. मोह-भंग 213
59. बहिन सुभद्रा 214
60. पाण्डव समस्या 132
61. साम्ब की सूर्योपासना 218
62. कुशेश्वर 221
63. अश्वत्थामा की याचना 223
64. बहिन-विदा 225
65. रण-निमन्त्रण 227
66. श्रीबलराम की तीर्थयात्रा 230
67. बल्वल वध 234
68. यात्रान्त-यज्ञ 237
69. रुक्मी-वध 239
70. अनिरूद्ध का अपहरण 242
71. वाणासुर 245
72. अनिरूद्ध बन्दी 247
73. शिव-संग्राम 249
74. वाणासुर की पराजय 253
75. वरूण-विजय 255
76. उतंक पर अनुग्रह 257
77. विप्र-पुत्रानयन 261
78. अतिथि दुर्वासा 268
79. रुक्मिणी-वियोग 271
80. गोपी-तालाब 273
81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश 276
82. यदुकुल को शाप 281
83. उपसंहार का अनुरोध 285
84. उद्धव को उपदेश 286
85. शाप की परिणति 290
86. संकर्षण स्वधाम को 294
87. व्याध पुरस्कृत 296
88. विदा 298
89. स्वधाम गमन 301
90. शेष-समाप्ति 303
91. उपसंहार 307
92. अंतिम पृष्ठ 310

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