श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शेष-समाप्ति
दारुक द्वारिका पहुँचा और उसने शंखोद्वार जाकर महाराज उग्रसेन तथा वसुदेव जी के चरणों में गिरकर प्रभास का वह समाचार दिया। उस समय किसी को अपनी काया की ओर ध्यान देने की स्मृति नहीं थी। अन्यथा दृष्टि अत्यल्प रह गयी थी। श्रवण काम नहीं कर रहे थे। कर, पद तथा मस्तक कम्पित होते थे। शरीर में शक्ति का नाम नहीं रह गया था। लोगों के शोक की सीमा नहीं थी। सिर, छाती पीटते जो जैसे थे वैसे ही सब रथों में बैठे और प्रभास पहुँचे। किसी को भी किसी दूसरे की ओर ध्यान देने का न अवकाश था, न शक्ति थी। केवल अर्जुन सावधान थे। इस समय श्रीकृष्णचन्द्र का किया गीता का उपदेश उनके काम आया। उनको कर्तव्य भावना उन्हें अधिक सशक्त, सावधान, स्फूर्तिमय बनाये थी। यदि वे भी व्याकुल होते हैं तो..........? उनके समीप रुदन का, शोक करने का समय नहीं था। वे ही सबको प्रभास पहुँचने की व्यवस्था कर रहे थे। वही इस समय संरक्षक, संचालक, निर्देशकर्त्ता सब कुछ थे। केवल महारानी कालिन्दी प्रभास नहीं गयीं। उन्होंने सब सुना और शान्त भवन से निकलीं। बाहर आकर उन सूर्यतनया ने आकाश में विराजमान अपने पिता को दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया और सहसा उनका दिव्य-देह उन सूर्य-किरणों में ऐसे वस्त्राभरण सहित घुल गया जैसे वे प्रकाश ही घनीभाव रही हों और उसी में लीन हो गयी हों। इस समय भला कौन इस स्थिति में था कि यह ध्यान देता कि कोई उनके साथ है या नहीं। यह भी किसी को कैसे ज्ञात होता कि वे भानुतया अपने नित्यधाम में श्रीवृषभानुतनया के समीप पहुँच गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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