श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. नृगोद्धार
प्रतिदिन नियम से नृग गोदान करते थे। वर्षो तक यह क्रम चला। कहा जाता है कि जैसे भूमि के रजकण अथवा आकाश के तारे गिने नहीं जा सकते वैसे ही नृग के गोदान की गायों की गणना सम्भव नहीं रह गयी थी। सृष्टि में सत्त्व, रज, तम, तीनों गुणों का संतुलन बना रहे तभी सृष्टि बनी रहेगी। यह सन्तुलन सत्त्वगुण की ओर बढ़े या रजस-तमस की ओर, सन्तुलन बिगड़ने लगे तो सृष्टि के संचालक को उसे सुधारना आता है। महाराज नृग बहुत सावधान थे। उनका दान सत्पात्र को मिले, सात्त्विक हो, श्रद्धा सहित दिया जाय, न्यायार्जित हो, उचित देश एवं काल में दिया जाय। लेकिन इतना अधिक दान- कब तक कोई सावधानी रख सकता है। एक दिन एक ब्राह्मण की गाय अपने स्वामी के यहाँ से भागकर नृग की गायों में मिल गयी। वह अपने बछड़े को भी साथ लेकर आयीं थी। कपिला भी सीधी थी। नृग की सहस्रों गायों के झुण्ड में गायों की सेवा पर नियुक्त सेवकों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। महाराज की गायों को तृण अन्न भली प्रकार मिलता ही था, वह गौ सब गायों के साथ गोष्ठ में रात्रि भर रह गयी। प्रातःकाल महाराज के गोदान के लिए जो कपिला, सवत्सा, सुन्दर गायें राजभवन उपस्थित हुई, उनमें ब्राह्मण की वह गाय भी थी। सायंकाल भागकर वह राजकीय गायों में मिल गयी थी और प्रातः दूसरी गायों के साथ महाराज नृग द्वारा एक ब्राह्मण को दान कर दी गयी। गाय का वास्तविक स्वामी अपनी गाय ढूँढ रहा था। महाराज नृग के लिए सम्भव नहीं था कि अपनी लाख-लाख गायों में सबकी पहिचान रखते किन्तु जिस ब्राह्मण के एक ही गाय हो वह उसे कैसे नहीं पहिचानेगा। जब दान लेने वाला ब्राह्मण दान में प्राप्त गायों को लेकर चला तो मार्ग में उस भागी गाय का स्वामी उसे मिल गया। 'यह गाय मेरी है। मुझे महाराज नृग ने आज ही दान की है।' दान पाने वाले ने कहा। नृग ने मस्तक हिलाकर स्वीकार किया। गाय के खुर चाँदी से और सींग स्वर्ण से मढ़े हैं। उसके कंठ की मुक्ता माला और ऊपर ढका मूल्यवान वस्त्र उतार लिया गया तो क्या हुआ, उसके मस्तक पर अब भी पूजन की रोली लगी है। यह तो स्पष्ट है कि उसका पूजन करके दान किया गया है। 'आप अब ब्राह्मण के धन का अपहरण करने लगे हैं?' गाय का स्वामी क्रोधपूर्वक बोला- 'मेरी गाय का अपहरण किया आपने?' 'मुझसे अनजाने में यह अपराध हो गया।' नृग ने गाय के स्वामी के चरण पकड़ लिये- 'मैं इसके बदले आपको दस सहस्र गायें दूँगा। मेरी गौशाला में से आप स्वेच्छानुसार गायें चुन लें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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