श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. नृगोद्धार
'महाराज! आप ही मुझ पर अनुग्रह करें।' नृग ने दूसरे ब्राह्मण के पैर पकड़े- 'इस गौ के बदले आप जितनी चाहें उतनी दूसरी गायें ले लें।' 'अर्थात गो-विक्रय का पाप मैं करूँ?' उस दूसरे ब्राह्मण को भी क्रोध आया- 'तुम दूसरे का स्वत्वापहरण करके दान करते हो, यह पता होता तो मैं यहाँ आता ही नहीं। मुझे न दूसरी गायें तुमसे लेनी हैं, न यही मैं ले सकता। यह जब तुम्हारी है ही नहीं तो तुम्हारा इसे दान करना तो मिथ्या संकल्प है।' दोनों ही ब्राह्मण क्रोध में भरे वहाँ से गाय को वहीं छोड़कर चले गये। नृग अतिशय धर्मात्मा थे। यह अनजाने में हुई भूल भी उनके लिए असह्य थी। वे इतने दुःखी हुए कि वहीं उनका शरीर छूट गया। यमपुरी में धर्मराज ने नृग का स्वागत किया। जो सुविधा किसी जीव को नहीं मिलती वह उन्हें मिली। 'देव! आप प्रसन्न है तो पहले मैं अशुभ का फल भोगकर उसे निःशेष कर देना चाहता हूँ।' नृग के निर्मल अन्तःकरण के लिए वह अशुभ अब भी अत्यन्त उत्पीड़क था। 'तब आप तिर्यक योनि में जायें।' धर्मराज ने तत्काल निर्णय कर दिया। नृग कृकलास[1] योनि में उत्पन्न हुए- सृष्टि के आदि के जंगल काल में होने वाले महासरट जैसा विशाल शरीर मिला उन्हें। मरने से किंचित पूर्व ब्राह्मणों के प्रश्नों के उत्तर में कृकलास के समान वे सिर हिलाते रहे थे अतः इस योनि में आये किन्तु धर्म अपना पुण्य प्रभाव खो दे तो वह धर्म क्या। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। महान धर्मात्मा नृग का धर्म उनकी यहाँ भी रक्षा ही कर रहा था। नृग अपने इक्ष्वाकुवंश में ही उत्पन्न रेवत के पुत्र आनर्त द्वारा तपस्या से प्राप्त बैकुण्ठ से अभिन्न भूभाग कुशस्थली में शरट् होकर उत्पन्न हुए। दिव्यधरा मिली उन्हें और पूर्वजन्म की स्मृति यथावत बनी रही। शरट्- कृकलास पत्र एवं कृमि भोजी प्राणी है। महाशरट् में पत्रभोजी तथा मांसाहारी दोनों जातियाँ हुई हैं, किन्तु नृग असाधारण शरट् थे। उन्होंने इस योनि में भी अनाहार तप प्रारम्भ किया। एक जलहीन कूप में उतर गये और उसमें किसी प्रकार सिकुड़ कर पड़े रहे। युग-पर-युग बीतते गये नृग को उस कूप में निराहार पड़े। उनका शरीर सूखता गया तो कूप में ठसे रहने का कष्ट कुछ घटा ही। वर्तमान समय बीते द्वापर का अन्त आया और एक दिन श्रीद्वारिकाधीश के कुमार पहुँच गये नृग जिस कूप में पड़े थे, उसके समीप। प्रद्युम्न, साम्ब, भानु, चारु, गद आदि श्रीकृष्ण कुमार नगर से दूर बाह्योपवन में क्रीड़ा करने निकले थे। अपने अश्वों को दौड़ाते, नाना प्रकार के विनोद में लगे वे नगर से बहुत दूर वन में आ गये थे। देर होने से उन्हें प्यास लगी तो जलाशय ढूँढते इस कूप तक पहुँच गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गिरगिट
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