श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियाँयहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि उद्धव जी को यह दुर्लभ पद गोपियों को शिष्यत्व ग्रहण करने के बाद ही मिला था। जब उद्धव को भगवान ऐसा कहते हैं, तब गोपियों का तो कहना ही क्या। श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में जो कुछ भी ऊँची-से-ऊँची स्थिति अनुभव में आती है, वही आगे चलकर बहुत नीची प्रतीत होने लगती है। जो भगवद्गीता आज संसार का सर्वमान्य प्रन्थ है, भगवान की दिव्य वाणी में परमोयोगी उपदेश होने के कारण जो सबका पूज्य है, उसमें जो कुछ करने के लिये कहा गया है, गोपियों के जीवन में सब बातें स्वभाविक वर्तमान थीं। भगवान ने भीमद्भगवद्गीता में प्रिय सखा भक्त अर्जुन जो परम रहस्यमय सार उपदेश दिया है, वह इस है- ‘जो सर्वत्र मुझको व्यापक देखता है और सबको मुझमें देखता है, उससे मैं काभी अदृश्य नहीं होता है और वह मुझसे कभी अदृश्य नहीं होता ।’[1] ‘(मेरे) दृढ़निश्चयी भक्त निरन्तर मेरे नाम-गुण का कीर्तन करते हुए, मेरे ही लिये चेष्टा करते हुए तथा बारंबार मुझको ही प्रणाम करते हुए, मुझमें मन लगाकर अनन्य भक्ति से मेरी उपासना करते हैं।’[2] ‘वे निरन्तर मुझ में मन लगाने वाले तथा मुझमें ही प्राणो को अर्पण करने वाले मेरे भक्त परस्पर मेरी ही चर्चा करते हैं।, मेरी ही लीला गा-गाकर संतुष्ट होते हैं और मुझे में ही रमण करते हैं; इस प्रकार प्रेम पूर्वक नित्युक्त हो कर मुझे भजने वाले भक्तों के साथ अपनी ईश्वरीय बुद्धि का योग मैं करा देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’[3] इसके बाद गीता का परम तत्त्व, परम गोप्य रहस्य बतलाते हुए भगवान ने अर्जुन से कहा था-
‘तू केवल मुझमें ही मन अर्पण कर दे, मेरा ही भक्त हो, मेरी ही पूजा कर, मुझ को ही नमस्कार कर; फिर तू मुझ को ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझे सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ क्योंकि तू मेरा अति प्रिय सखा है। सब धर्मों को छोडकर तू केवल एक मेरे ही शरण हो जा, मैं तुझे सब पापों से छुड़ा दूँगा, तू चिन्ता न कर।’ |
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