श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
विरह-सुख
भगवत्प्रेम का पागल वह विरही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के सिवा और किसी को जनता ही नहीं, वह तो अपने को सदा के लिये उनकी चरण दासी बनाकर उन्हीं की इच्छा पर छोड़ देता है और वियोग की ज्वाला में जलता हुआ ही उन्हें सुखी देखकर परम सुख का अनुभव करता है। महाप्रभु कहते हैं-
‘वह लम्पट मुझ चरणदासी को प्रिय समझकर चाहे गले लगा ले, चाहे अपने पैरों से रौंद डाले और चाहे दर्शन न देकर विरह की आग से मेरे प्राणों को जलाता रहे- जो चाहे सो करें; परंतु मेरा तो प्राणवल्लभ वही है, दूसरा कोई नहीं।’ आपको यदि भगवान् के विरह में कुछ रस आता है तो यह बड़े ही सौभाग्य की बात है। रोने में आनन्द आता है- यह भी बहुत उत्तम है। बस, रोते रहिये और प्रेम के आँसुओं से सींच-सींचकर विरह की बेलको सारे तन-मन में फैलात रहियें। उसकी जड़ को पाताल में पहुँचा दीजिये और उसी की सघन छाया में उसी से उलझे बैठे रहिये। देखिये, आपका मजा कितना बढ़ता है। |
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