श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इसमें कोई संदेह नहीं कि इन नेत्रों की सफलता नित्य अतृप्तरूप से उस नवीन नीलनीरजकान्ति श्यामसुन्दर की विश्व-विमाहिनी रूपमाधुरी का दर्शन करने में ही है। परंतु जहाँ तक भगवत्कृपा से इन नेत्रों को दिव्य भाव नहीं प्राप्त होता, वहाँ तक ये नेत्र उस रूप-छटा के दर्शन से वंचित ही रहते हैं। नेत्रों को दिव्य बनाकर उन्हें सार्थक करने का ‘सिद्धमार्ग’ उपर्युक्त ‘परम व्याकुलता’ ही है। जिस महानुभाव के हृदय में श्री कृष्णदर्शन तीव्रतम विरहाग्नि जल रही है, वह सर्वथा स्तुति का पात्र है। विरहाग्नि प्रायः बाहर नहीं निकला करती और जब कभी वियोग-वेदना सर्वथा असह्य होकर बाहर फूट निकलती है, तब वह उसके सारे पाप-तापों को तुरंत जलाकर उसे प्रेम में पागल बना देती है। उस समय वह भक्त अनन्य प्रेम में मतवाला भक्त-व्रजगोपियों की भाँति सब कुछ भूलकर उस प्राणाधिक मनमोहन के दर्शन के लिये दौड़ पड़ता है और अपनी सारी शक्ति और सारा उत्साह लगाकर उसको पुकारता है। बस, इसी अवस्था में उसे भगवान के दर्शन प्राप्त होते हैं। दर्शन उसी रूप में होते हैं, जिस रूप में वह दर्शन करना चाहता है एंव व्यवहार, बर्ताव या वार्तालाप भी प्रायः उसी प्रकार का होता है, जिस प्रकार का उसने पहले चाहा है। ऐसी स्थिति को प्राप्त होने के लिये साधक को चाहिये कि पहले वह सत्संग के द्वारा भगवान् के अतुलनीय महत्त्व को कुछ समझे और उनके निरन्तर नाम-जप तथा ध्यान के द्वारा अपने अन्तर में उनके प्रति कुछ प्रेम उत्पन्न करे। ज्यों-ज्यों भगवत्-प्रेम से हृदय भरता जायगा, त्यों-ही-त्यों वहाँ से विषय हटते चले जायेंगे। यों करते-करते जिस दिन वह अपना हृदयासन केवल परमात्मा के लिये सजा सकेगा, उसी दिन और उसी क्षण उसके हृदय में परम व्याकुलता उत्पन्न होगी और वह व्याकुलता अत्यन्त तीव्र होकर भगवान् के हृदय में भी भक्त को दर्शन देने के लिये वैसी ही व्याकुलता उत्पन्न कर देगी। इसके बाद तत्काल ही वह शुभ समय प्राप्त होगा, जिसमें भक्त और भगवान् का परस्पर प्रत्यक्ष मिलन होगा और उससे भूमि पावन हो जायगी। |
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