श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान् कृतघ्न भी नहीं हैं। वे एक बार प्रणाम करने वाले के सामने भी सकुचा जाते हैं। ‘सकुचत सकृत प्रनाम किए हूँ’ ; फिर भक्त की तो बात ही क्या है। वे उसके तो अधीन ही हो जाते हैं। श्री दुर्वासाजी से भगवान् ने कहा है-
‘दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ, मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधु स्वभाव के भक्तों ने मेरे हृदय पर अपना अधिकार कर लिया है। वे मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे।’ अतएव भगवान् सदा ही कृतज्ञ है। कृतज्ञ कभी उदासीन नहीं होता। आत्माराम और आप्तकाम भी उदासीन होते हूँ, परंतु उनकी उदासीनता दूषित नहीं होती। वह तो उनके स्वरूप की शोभा है। पर कृतघ्न और गुरुद्रोही की उदासीनता बड़ी भीषण होती है। इनमें भी गुरुद्रोही सबसे बढ़कर है। जो लोग मजे में दूसरों का माल उड़ाकर गर्व से मूँछों पर ताव देते हैं, उनसे भी वे अधिक बुरे हैं जो उपकारियों के साथ द्रोह करते हैं। श्री भगवान् ऐसे गुरुद्रोही नहीं हैं। वे भक्तों का उपकार मानते हैं और अपने को उनके सामने ले जाने में भी सकुचाते हैं। मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी भक्त हनुमान् से कहते हैं-
इससे सिद्ध है कि भगवान् किसी भी श्रेणी के उदासीन भी नहीं हैं। तो वे क्या हैं? वे हैं व्रजसुन्दरियों के ऋणी- वैसे भक्तों के चिरऋणी! वे सर्वसमर्थ, सर्वैश्वर्यपूर्ण होकर भी उनका बदला नहीं चुका सकते, अतएव वे अपेक्षा से प्रेम नहीं करते। वे सबके माता-धाता-पितामह होकर भी माता-पिता की भाँति निरपेक्ष रहकर भक्त में कोई दोष नहीं रहने देते। |
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