श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘जैसे बालक दर्पण में अपने रूप को देखकर उसके साथ स्वच्छन्द खेलता है, उसी प्रकार से लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजसुन्दरीयों के साथ रमण किया।’ यह है संक्षेप में भगवान के जार रूप की स्थूल व्याख्या! भला, इस दिव्य प्रेमलीला को- परमात्मा की और जीवात्मा की या भगवान और भक्त की इस आदरणीय मिलन लीला को कोई व्यभिचार कह सकता है? केवल दही, माखन और वस्त्र ही नहीं, समस्त गोपियों के सम्पूर्ण मन-प्राण को चुरा लेने के कारण और एक-दो के साथ नहीं किंतु असंख्य देहों में असंख्य आत्मारूप से निवास करने वाले परमात्मा के खेल की भाँति, अगणित चिदानन्दमयी गोपियों के साथ आत्मरमण करने के कारण रसानुभूति को प्राप्त भाग्यवती गोपियों ने डंके की चोट भगवान श्रीेकृष्ण को ‘चोर-जार-शिखामणि’ कहा और ठीक ही कहा !! अवश्य ही कुछ विषय कामी पुरुषों ने भगवान की इन दिव्य लीला को लौकिक चोरी-जारी मानकर इसका दुरुपयोग किया और अब भी कर रहे हैं; परंतु उनके ऐसा करने से न तो भगवान के दिव्य भाव में कोई अन्तर पड़ सकता है और न गोपियों का ही कुछ बिगड़ सकता है! हाँ, बुरी नीयत से कविता में, भावों में, आचरण में, उपदेश में और समझने में इसका दुरुपयोग करने वाले नर-नारी अवश्य ही पाप के भागी और नरकगामी होते हैं! |
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