श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का स्वरूप
अदम्य वेगमयी भागरथी का तीव्र प्रवाह कहीं तनिक-सी बाधा पाकर जैसे उद्दीप्त गर्व से उच्छ्वसित हो उठता है और अन्त में दोनों तटों को बहाकर सुनील सागर में सम्मिलित हो जाता है, श्रीराधा का प्रेम भी मान से उच्छ्वसित होकर शेष में कलहान्तर के पश्चात् मधुरतम श्यामसागर में मिलकर आत्मसमर्पण कर देता है। कितना सुन्दर, कितना मधुर है यह ‘मान’! यह ‘मान’ जब प्रगाढ़ होता है, तब ‘प्रणय’ होता है। उसमें विश्रम्भ होता है, जो दो रूपों में अभिव्यक्त होता है- 1 मैत्र, 2 सख्य। विनययुक्त विश्रम्भ को ‘मैत्र’ और भयहीन विश्रम्भ को ‘सख्य’ कहते हैं। इन दोनों में— ‘सख्य’ और ‘मैत्र’ में - बड़ा अन्तर है। मित्र अपमान नहीं करता अपने मित्र का, पर सख्य भाव में भगवान् के व्रजसखा श्रीकृष्ण का पद-पद पर अपमान करते हैं। एक बार व्रजसखा कहने लगे— ना हम चाकर नंदबबा के ना तुम हमरे नाथ गुसैयाँ।। प्रणय जब प्रगाढ़ होता है, उसका फल ‘राग’ होता है। इसमें अपने प्रियतम के लिये प्राप्त होने वाले महान् दुःख भी सुख रूप भासते हैं, दीखते हैं, अनुभूत होते हैं। इसी का नाम ‘राग’ है; यह गंदा ‘विषयानुराग’ नहीं है।
|
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज