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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाभाव की एक झाँकी
‘भगवदासक्त प्रेमी भक्त के लवमात्र के संग से स्वर्ग और अपुनर्भव— मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती, फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है।’ इस परम पवित्र, भुक्ति-मुक्ति-त्याग से विभूषित उज्ज्वलतम प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति व्रजगोपियों में हुई। उनमें श्रीकृष्ण-सुख-लालसा के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। अपनी कोई चिन्ता उन्हें कभी नहीं हुई। ये सब गोपांगनाएँ श्रीराधारानी की कायव्यूहरूपा हैं और उन्हीं के सुख-सम्पादनार्थ अपना जीवन अर्पण करके प्रेम का परम पवित्र आदर्श व्यक्त कर रही है। इनमें श्रीराधारानी की सखियों में आठ प्रधान— ललिता, विशाखा, चित्रा, चम्पकलता, सुदेवी, तुंगविद्या, इन्दुलेखा और रंगदेवी। इनमें प्रत्येक की अनुगता आठ-आठ किंकरियाँ हैं तथा अनेक मन्जरीगण हैं। ये सभी श्रीराधा-माधव की प्रीतिसाधना में ही नित्य संलग्न रहती हैं। इन सबकी आधार रूपा हैं श्रीराधिकाजी। प्रेमभक्ति का चरम स्वरूप श्रीराधाभाव है। इस भाव का यथार्थ स्वरूप श्रीराधिका के अतिरिक्त समस्त विश्व के दर्शन में कहीं नहीं मिलता। श्रीराधा शंका, संकोच, संशय, सम्भ्रम आदि से सर्वथा शून्य परम आत्मनिवेदन की पराकाष्ठा है। रति, प्रेम, प्रणय, मान, स्नेह, राग, अनुराग और भाव— इस प्रकार उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ परम त्यागमय पवित्र प्रेम अन्त में जिस स्वरूप को प्राप्त होता है उसे ‘महाभाव’ कहा गया है। इस महाभाव के उदय होने पर क्षणभर भी प्रियतम का वियोग नहीं होता। श्रीराधा इसी महाभाव की प्रत्यक्ष मूर्ति है। वे महाभाव-स्वरूपा है। श्रीकृष्ण की समस्त प्रेयसीगणों में वे सर्वश्रेष्ठ हैं। नित्य-नव परम सौन्दर्य, नित्य-नव माधुर्य, नित्य-नव असमोर्ध्व लीला चातुर्य की विपुल नित्यवर्धनशील दिव्य सम्पत्ति से समलंकृत प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर श्रीराधा के प्रेम के आलम्बन हैं और श्रीराधा इस मधुर रस की श्रेष्ठतम आश्रय हैं। ये श्रीराधा कभी प्रियतम के संयोग-सुख का अनुभव करती हैं और कभी वियोग-वेदना का। इनका मिलन-सुख और वियोग-व्यथा— दोनों ही अतुलनीय तथा अनुपमेय हैं। श्रीरूपगोस्वामी महोदय वियोग की एक झाँकी का दर्शन इस प्रकार कराते हैं— |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1। 18। 13
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