श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इस प्रकार वे स्वयं भोग्य बनकर जिनके सम्पूर्ण तन-मन को सफल बना रहे हैं, गिरिवरधारी स्वयं भगवान जिन श्रीगोपीजनों के मन में लहराते हुए प्रेम रस का आस्वादन करने के लिये प्रेम विवश होकर मन-ही-मन ललचाते और स्वयं परम सुख के एक मात्र आधार होकर भी, इसमें परम सुख को प्राप्त करते हैं, उन श्रीगोपियों की उपमा किनसे दी जाय?
इस पावन प्रेम राज्य में न तो जागतिक भोगों को स्थान है न भोग-वासना को; न जागतिक ममता को स्थान है न अहंकार-अभिमान को। यहाँ चिन्मय भगवान ही सब कुछ बने रहते हैं- भोक्ता भी भगवान, उनके भोग्य भी भगवान तथा भोग क्रिया भी भगवान। यहाँ आस्वादन, आस्वाद्य तथा आस्वादक का तत्त्वतः भेद नहीं है। तथापि इस रस-सागर में नित्य-निरन्तर स्वसुख-त्याग तथा प्रियतम-सुख-दान की भावमयी सुधा-तरंगें नाचती रहती हैं। प्रेमी का जीवन केवल मात्र प्रेमास्पद का सुख साधन बना रहता है और स्व-सुख-वान्छा का सर्वथा अभाव होने के कारण दोनों ही परस्पर प्रेमी-प्रेमास्पद हो जाते हैं। |
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