श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
इच्छाशक्ति उत्पन्न होते ही इसका नाम ‘मन’[1] होता है, चित्ति के कारण इसी मन को ‘चित्त पुरुष’ वा ‘चिदात्मा’ भी कहा करते हैं। चिति दो प्रकार की होती है, अन्तश्चिति और बहिश्चिति। जो सृष्टि की ओर प्रवृत करने वाली है, जिसके द्वारा कर्म का प्राबल्य होकर रस का आवरण हो जाता है, उसे बहिश्चिति कहते हैं, यह ‘ग्रन्थि’ डालने वाली चिति है। और जिसके द्वारा कर्मग्रन्थि खुलती जाय, कर्म लीन होता जाय और रस का विकास होता जाय, वह अन्तश्चिति कहाती है, गाँठ लगना और गाँठ खुलना- दोनों कर्म के ही फल हैं, अतः दोनो चिति बल की ही हैं। बहिश्चिति सृष्टि का कारण बनती है और अन्तश्चिति मुक्ति का। बहिश्चिति से प्राण और वाक्- ये दोनों कलाएँ प्रकट होती हैं और अन्तश्चिति से विज्ञान और आनन्द का विकास होता है। यों आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक् ये पाँच कलाएँ अव्यय पुरुष की सिद्ध होती हैं। इन्हें ही तैत्तिरीय उपनिषद में पाँच कोश बताया है। वाक् का नाम वहाँ ‘अन्न’ आता है और सब नाम यथाक्रम ये ही हैं। कोश-अर्थात निधान-खजाना। जो अक्षर, क्षर, पुर आदि आगे बनने वाले हैं- उनका आलम्बन- निधान- खजाना ये ही अव्यय पुरुष की पाँच कलाएँ हैं, इनके बिना जगत की सृष्टि व स्थिति नहीं हो सकती। जो पदार्थ परिच्छिन्न- सीमाबद्ध होता है, वह अपूर्ण समझा जाता है, और अपूर्ण की प्रवृत्ति पूर्ण होने की रहती है, यह स्वाभाविक है। पूर्ण ही अपूर्ण बना है, इसलिये विज्ञानानुमोदित आकर्षण[2]- सिद्धान्त के अनुसार वह अपनी पूर्ण दशा में ही जाना चाहता है। अव्यय पुरुष ज्ञान (रस) और कर्म (बल) उभयात्मक है- यह कहा जा चुका है, अतः रसरूप से यद्यपि वह पूर्ण है, किन्तु बलरूप से सीमाबद्ध है। अपूर्ण बल पूर्णरूप में जाना चाहता है- क्योंकि उसका भी विकास पूर्ण से ही हुआ है। पूर्ण होने के लिये यह आवश्यक है कि जो अपने से भिन्न है, उन्हें अपने में लिया जाय- उनको अन्न बनाया जाय- उनका ‘अशन’ किया जाय। इस प्रवृत्ति का हेतु जो बल होता है, उसे श्रृति में ‘अशनाया’ बल कहा जाता है। ‘मृत्युनैवेदमावृतमासीत्, अशनायया, अशनाया हि मृत्युः’ (बृहदारण्यक) इत्यादि श्रुति में सृष्टि के आरम्भ में इसे ही अशनाया बल की स्थिति बतलायी गयी है। मरणधर्मा होने के कारण बल का नाम मृत्यु भी है- यह कहा जा चुका है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इंद्रियों में जिस मन की गणना है, वा भूतात्मारूप जो मन है-वह इससे प्रथक है।- लेखक
- ↑ जो जिसमे से निकला हो जिसका अवयव हो वह अपने घन की ओर गति रखे-यही आकर्षण सिद्धांत है। जैसे मिट्टी का ढेला पृथ्वी की और अपका विकार धूम अंतरिक्ष की ओर और तेज सूर्य की ओर स्वाभाविक गति रखता है।
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