श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ ‘श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात भगवान परमेश्वर परब्रह्म हैं’- यह आर्यजाति का अटल विश्वास है। श्रीकृष्णचरण से ही भक्तिमन्दाकिनी का सुधानिर्झर प्रवाहित होकर शान्तिमय प्रवाह से सम्पूर्ण जगत को आप्लावित करता हुआ ब्रह्माण्ड को वष्टित कर वहीं पहुँचकर लीन होता है, जिसमें डूबकर सनातन धर्मावलम्बी समाज सदा से अपने-आपको सफलजन्मा कृतकृत्य बनाता आया और आज भी बना रहा है। कृष्णलीला भक्त-जगत का सर्वस्व है, उसके श्रवण, कीर्तन, स्मरण, ध्यान और अनुकरण में प्रलीन भक्तचित्त को तर्क, वितर्क, कुतर्क का अवकाश ही नहीं मिलता, उस आनन्द स्त्रोत में जिन्होंने अपने-आपको बहा दिया है, उनके आगे तर्क के तिनकों की कदर ही क्या है? भक्तिरत्नमन्च के सामने विज्ञानदर्पण क्या प्रतिष्ठा रख सकता है? तथापि अपने-अपने अधिकारनुसार भिन्न-भिन्न जिज्ञासुजन की भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति होती हे। बहुत से जिज्ञासुजन प्रतिकूल तर्कों के आघात से विकल होकर ‘ईंट का जवाब पत्थर से चाहते हैं, बहुत से अपनी बुद्धि को सन्तुष्ट करने के लिये प्रत्येक विचार या कर्तव्यता को वैज्ञानिक भित्ति पर ही खड़ा रखना चाहते हैं। किसी को प्रत्येक बात की तह में आध्यात्मिक चासनी का चसका है, तो कोई प्रत्येक विचार को विज्ञान के मसाले से चटपटा बनाना चाहता है। किन्तु आश्चर्य यह है कि इन सबकी भ्रसाध श्रीकृष्ण लीलामें पूरी हो जाती है। उसे जिस दृष्टि से देखो, उसी दृष्टि से परिपूर्णता की ओर बढ़ते चले जाबो, किसी अधिकारी को वहाँ निराशा की चट्टान से टकराना नहीं पड़ता। अस्तु, वर्तमान युग के विशेष जिज्ञासुजनों के हितार्थ श्रीकृष्णावतार और उनके चरित्रों पर यहाँ वैज्ञानिक दृष्टि से संक्षेप में विचार किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से हमारा अभिप्राय उस दृष्टि से है जिसमें केवल श्रद्धा ही अवलम्बन न हो, शास्त्र के वाक्य ही एकमात्र आधार न हों, किन्तु प्रत्यक्ष और अनुभव का भी जिसमें सहारा लिया जा सके, तर्क के कर्कश प्रहार भी जहाँ कुण्ठित होते जायँ, प्रथमाधिकारियों की बुद्धि भी जिससे विकसित होती जाय, और यों सब लोग जिससे लाभ उठा सकें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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