भक्त
ऊधो ऐसो भक्त मोहिं भावै ।
सब तजि आस, निरंतर मेरे जन्म! कर्म गुण गावै ।।
कथनी कथै निरंतर मेरी सेवामें चित लावै ।
मृदुल हास अंखियन जलधारा करतल ताल बजावै ।।
जहं जहं भगत निज राखै तहं तीरथ चलि आवै ।
तहं की रज को अंग लगावत कोटि ब्रह्म-सुख पावै ।।
मेरो रुप हृदै में तिनके, मेरे उर वे आवैं ।
बलि बलि जाउं श्रीमुख की बाणी सूरदास यस गावैं ।।
श्रीकृष्णाऽर्पणमस्तु !
1. घूम-घूम बन-बन में प्यारे,
चुने अनूठे भाव- सुमन !
वपुण्य सूत्र में गूंथ बनाई,
माला, करने को अर्पण !!
2. प्रेम वारिमें घिस कर चन्द न,
हृदय ज्योिति सा जला प्रदीप !
अक्षर-अक्षत सजा थाल में,
सोचा, पहुँचूं आप-समीप !!
3. इसी समय हा ! हुआ अचानक,
वज्र-पात पलटा सब थाल !
बिखरे अक्षत, बुझा दीप भी,
भग्ने हुई वह आशा-माल !!
4. विहंस रहा दिमंडल कैसे,
ताक रहा पथ क्याह निस्तेब्ध !
सोचा था क्या्-क्यात हा, मन में,
दिखा रहा पर क्या प्रारब्धा !!
5. सत्यक कहा है- मेरे मन कुछ,
विधि के मन में है कुछ और !
मन-चाही कब हुई किसी की,
विधि चाही होती सब ठौर !!
6. मान वाम-विधि का हरने हित,
क्यों न एक सदुपाय करुं !
जीवन थाल समर्पण कर निज,
अपने प्रियका चित्तक हरुं !!
7. बाधाएं सब अपहत होयें,
मैं प्रसाद प्रियका पाऊं !
लख कर विफल मनोरथ विधि को,
मन्द-मन्द् मैं मुसकाऊं !!
-कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
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