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(लेखक-श्री रामचंद्र कृष्ण कामत)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिनिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।[1]
अर्थात जब-जब धर्म क ग्लानि तथा अधर्म की प्रबलता होती है तब-तब मैं व्यक्त रुप में प्रकट होता हूँ। (1) साधुजनों का (सज्जनों का) संरक्षण (2) दुष्टों का समूल नाश, तथा (3) धर्म का संस्थापन- इन तीन कार्यों के लिए मैं संसार में अवतीर्ण होता हूँ अथवा अवतार धारण करके यही तीन कार्य मैं करता हूँ। यह भगवान ने श्रीमुख से कहा है, और इसी प्रकार-
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वर: ।
रक्षामिच्छंस्तुनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ।।
उच्चावचेषु भूतेषु चरन्वायुरिवेश्वर: ।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धि यो गुणे: ।।[2]
अर्थात गो, ब्राह्मण, देवता, साधुजन, वेद तथा धर्म- इन सबकी रक्षा करने की इच्छा से भगवान अवतार धारण करते हैं। जैसे वायु किसी भी स्थान पर प्रवाहित क्यों न हो, उसमें स्थान दोष नहीं आता, वैसे ही भगवान उच्च अथवा निकृष्ट किसी भी योनि में अवतार धारण क्यों न करें, उनके निर्गुण होने के कारण उस योनि का दोष उनके लिए बंधनकारक नहीं हो सकता, ऐसा भागवत में कहा गया है। ईसाई धर्म शास्त्र में भी कुछ ऐसी ही बात कही गयी है-
‘For the oppression of the poor, for the sighing of the needy, now will i arise, Saith the Lord.’[3]
श्री एकनाथी भागवत में भी कहा है-
भगवान ने कितने ही धर्म नीति रहित, प्रजापीडक, भूभाररुप राजाओं का संहार किया। किसी का सेना के द्वारा, किसी का स्वयं अपने हाथों से, किसी का गोत्रकलह के प्रसंग में, किसी का अग्रपूजा के समय और किसी का अन्य उपायों से बध किया। हे राजन ! जब निरपराधियों को दण्ड दिया जाता है, जब पथिकों का जीवन संकटापन्न रहता है, जब उद्दण्ड लोग सर्वापहरण में रत होते हैं, जब निर्बल का बल राजा स्वयं ही प्रजा को लूटने खसोटने लगता है, पृथ्वी पर ऐसा अधर्म छा जाने पर यह सब गरुड़ध्वज भगवान से नहीं सहा जाता। इस प्रकार अधर्म के द्वारा धर्म को पीड़ा प्राप्त होने से श्रीनारायण अवतार धारण करते हैं। ऐसी ही अवस्था में आगे कल्कि अवतार होगा। धर्म के यानि संसार के सुख स्वास्थ्य के नियमों को भंग करके अधर्मानुसरण करने वाले दुष्कृति लोगों का नाश किये बिना- उन्हें शिक्षा दिये बिना- संसार में धर्म की यानि सुख-स्वास्थ्य के नियमों की व्यवस्था नहीं होती और संसार के दु:ख संतोप ज्यों के त्यों बने रहते हैं।
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