श्रीकृष्णांक
जन्माष्टमी
एक का एक ही सूरज रोज-रोज उगता है, फिर भी हर रोज़ नया प्राण, नया चैतन्य, नवजीवन अपने साथ ले आता है। यह सोचकर कि सूरज पुराना ही है, पक्षी निरुत्साह नहीं होते। कलका ही सूर्य आज आया है, यह कहकर द्विजगण भगवान निदकर का निरादर नहीं करते। जिस आदमी का जीवन शुष्क हो गया है, जिसकी आँखों का पानी उतर गया है, जिसकी नसों में रक्त नहीं रहस है, उसी के लिये सूरज पुराना है। जिसमें प्राण का कुछ भी अंश है, उसके मन तो भगवान सूर्यनारायण नित्य नूतन हैं। जन्माष्टमी भी हर साल आती है। प्रतिवर्ष वही की वही कथा सुनते हैं, उसी तरह उपवास करते हैं और प्रायः एक ही ढंग से श्रीकृष्ण जन्म का उत्सव मनाते हैं; फिर भी हजारों वर्षों से जन्माष्टमी हमें उस जगद्गुरु का नया ही सन्देश देती आयी है। कृष्ण पच की अष्टमी के वक्रचन्द्र की तरह एक पग पर भार देकर और दूसरा पैर तिरछा रखकर शरीर की कमनीय बाँकी अदा के साथ मुरलीधर ने जिस दिन संसार में प्रथम प्राण फूंका, उस दिन से आज तक हर एक निराधार मनुष्य को यह आश्वासन मिला है कि- नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति। भाई ! जो आदमी सन्मार्ग पर चलता है, जो धर्म पर डटा रहता है उसकी किसी भी काल में दुर्गति नहीं होती। लोग खयाल करते हैं कि धर्म दुर्बल लोगों के लिये है। अधिक हुआ तो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्ध में उसकी कुछ उपयोगिता होगी। पर राजा और सम्राट तो जो करें, वही धर्म है। साम्राज्य शक्ति धर्म से परे है। व्यक्ति का पुण्य क्षय होता होगा पर साम्राज्य तो अलौकिक वस्तु है। ईश्वर की विभूति से भी साम्राज्य की विभूति श्रेष्ठतर है। सम्राट जब हाथ में विजय पताका लेकर पर्यटन करता है तो ईश्वर दिन में चन्द्रमा की भाँति कहीं छिप रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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