श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
अस्तु, अशनाया बल दूसरे बलों पर आक्रमण कर उन्हें अपनी ओर ले लेता है- यह आदान-क्रिया है, आदान के साथ ही निष्क्रमण-विसर्ग भी प्रारम्भ हो जाता है। ये आदान और विसर्ग अनवच्छिन्न- निरन्वयरूप में चलें तो किसी पदार्थ की स्थिति ही न बन सके, इसलिये साथ ही ‘प्रतिष्ठा’ बल ही रहता है, जो आदान, विसर्ग होते हुए भी वस्तु की सत्ता रखता हे। ये सब बल अव्यय पुरुष की प्राण कला को आलम्बन बनाकर प्रकट होते हैं, और ये ही ‘अक्षर’ पुरुष कहे जाते हैं। अक्षर पुरुष यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार से बलप्रधान- बलातमक हैं, किन्तु बिना ‘रस’ के आधार के बल की स्थिति ही नहीं, इसलिये रसात्मक अव्यय पुरुष इसमें अनिवत- अनुस्यूत (भीतर घुसा हुआ) है, वही इन बलों का आधार है, इसलिये अक्षर पुरुष है। इस अक्षर पुरुष की भी पाँच कलाएँ हैं- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम। पूर्वोक्त प्रतिष्ठा बल से अवच्छिन्न रस का नाम ब्रह्मा है, आदान (यज्ञ) बलवाला विष्णु और उत्क्रानित बलवाला इन्द्र[1] कहा जाता है। जब आदान बल दूसरे बलों को अपनी तरफ लेता है जो वहाँ अन्न, अन्नादभाव हो जाता है, एक वस्तु दूसरी वस्तु के अन्तर्गत हो जाती है। जो अन्तर्गत होती है वह अन्न और जिसके अन्तर्गत होती है वह अन्न कहा जाता है। अन्न को सोम और अन्नाद को अग्नि कहते हैं। इन पाँच देवताओं के ही अवान्तर भेदों में सब देवता अन्तर्गत होते हैं- जैसा कि निम्ननिर्दिष्ट श्रुति में कहा गया है-यदक्षरं पंचविधं समेति इन पाँच कलाओं में ब्रह्मा, बिष्णु, इन्द्र- ये तीन हृदय (केन्द्र)- में रहने के कारण हृदय कहलाते हैं और अग्नि, सोम बाह्य कहे जाते हैं। जैसे अव्यय की प्राणकला में अचर-पुरुष का विकास हुआ है, ऐसे ही अक्षर की ये अग्नि और सोम नाम की दो कलाएँ क्षर पुरुष- बाह्यपिण्ड- भूतात्मा को बनाने में प्रधान भाग लेती है। शक्तिरूप अक्षर पुरुष से ही भूत रूप क्षर विकसित होता है, प्राण ही ‘रयि’ का उत्पादक है, फास् ही मैटर बनाती है, यह वैदिक सिद्धान्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पौराणिक भाषा में इंद्र के स्थान में रुद्र कहा गया है, अप्रस्तुत होने से यह विचार यहा बढ़ाया नहीं जाता।
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