|
(लेखक- कुंवर श्री व्रजेन्द्र सिंहजी ‘साहित्यालंकार’)
भगवान श्रीकृष्ण चंद्र को संसार ने अनेक दृष्टियों से देखा है, किन्तु भावुक कवियों का दृष्टि बिन्दु कुछ निराल ही है। साधारण जनसमुदाय के भगवान श्रीकृष्ण, अथवा आराध्य देव के विशेषण तो दीनदयालु या भक्त वत्सल से लेकर घट-घट के वासी तक जाकर समाप्त हो लेते हैं। ज्ञानियोंकी सूखी सूझ् कुछ आगे बढ़ती है- वे उन्हें अनादि,अनन्त अगोचर निरीह, निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वव्यापी,जगन्मय, जगदात्मा, परब्रह्मा और परमेश्वर इत्यादि कहते है। अब जरा,इन भक्त कवियों के श्रीकृष्ण को भी देखिये, कैसे कुंज विहार, बनवारी, पीतपटधारी, रसिक,रंगीले, छवीले, फड़क उठती है। दुनियां के श्रीकृष्ण में फीकापन झलक सकता है, किन्तु इन भक्त कवियों के सलोने श्रीकृष्ण तो सर्वथा और सर्वदा मधुरातिमधुर हैं।
बसो मेरे नैननि में नंदलाल ।
मोहनीमूरति सांवरि सूरति, नैना बने बिसाल ।
अधर- सुधा- रस मुरलीराजति, उर बैजन्ती माल ।
छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर शब्दन रसाल ।
‘मीरा’ प्रभु संतन सुखदाई, भक्तद- बछल गोपाल ।
धूरि-भरे अति सोभित स्या मजू, तैसी बनी सिर सुन्दवर चोटी ।
खेलत- खात पिरें बंगना, पग पैंजनियां, कटि पीरि कछोटी ।
वा छवि को ‘रसखानि’ बिलोकत, बारत काम- कलानिधि कोटी ।
काग के भाग कहा कहिये, हरि- हाथ सों लै गयो माखन रोटी ।
पायन नूपुर मंजु बजैं,कटि किंकिन की धुनि की मधुराई ।
सांवरे अंग लसै लट लीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई ।
माथे किरीट, बड़े दृग चंचल, मंद हंसी मुख- चंद जुन्हाटई ।
जै जग मंदिर दीपक सुन्दखर, श्री वज्र दूलह,‘देव’ सहाई ।
कमल दल नैननि की उनमानि ।
बिसरत नाहिं सखी, मो मनते मंद-मंद मुसकानि ।
ये दसननि- दूति चपला हू ते महा चपन चमकानि ।
बसुधा की बस करी मधुरता, सुधा- पगी बतरानि ।
चढ़ी रहे चित, उर बिसालकी, मुकुट माल थहरानि ।
नृत्यह समय पीताम्बररहू की, फहरि- फहरि फहरानि ।
अनुदिन श्री वृंदावन ब्रजते, आवन आवन जानि ।
छबि ‘रहीम’ चितते न टरति है, सकल स्या मकी बानि ।
हरी-हरी भूमि में हरित तरु झूमि रहे,
हरी-हरी बल्लीम बनी विविध विधान की ।
कहें,‘रत्नामकार’त्योंन हरित हिंडोरा परयो ।
तापे परी आभा हरी, हरित वितान की ।।
ह्वै है हिय हरित, हरैं ही चलि हेरो हरि,
तीज हरियाली की प्रभाली सुभ सानकी ।
इती हरियाली में निराली छबि छाय रही,
बसन गुलाली सजे लाली वृषभान की ।।
|
|